।। श्रीहरिः ।।

                             




           आजकी शुभ तिथि–
आश्विन शुक्ल प्रतिपदा. वि.सं.२०७७, शनिवा
नवरात्रारम्भ
सत्संगके अमृत-कण


(८१)

एक-एक व्यक्ति खुद सुधर जाय तो समाज सुधर जायगा ।

(८२)

अब मैं पुनः पाप नहीं करूँगा‒यह असली पापका प्रायश्चित है ।

(८३)

नाशवान्‌में अपनापन अशान्ति और बन्धन देनेवाला है ।

(८४)

अगर अपनी सन्तानसे सुख चाहते हो तो अपने माता-पिताकी सेवा करो ।

(८५)

मुझे सुख मिल जाय‒यह सब पापोंकी जड़ है ।

(८६)

जहाँ लौकिक सुख मिलता हुआ दीखे, वहाँ समझ लो कि कोई खतरा है !

(८७)

अपना जीवन अपने लिये नहीं है, प्रत्युत दूसरोंके हितके लिये है ।

(८८)

भगवन्नामका जप और कीर्तन‒दोनों कलियुगसे रक्षा करके उद्धार करनेवाले हैं ।

(८९)

जबतक संसारमें आसक्ति है, तबतक भगवान्‌में असली प्रेम नहीं है ।

(९०)

दूसरेके दुःखसे दुःखी होना सेवाका मूल है ।

(९१)

किसीके अहितकी भावना करना अपने अहितको निमन्त्रण देना है ।

(९२)

वस्तु-व्यक्तिसे सुख लेना महान्‌ जड़ता है ।

(९३)

जिसके भीतर इच्छा है, उसको किसी-न-किसीके पराधीन होना ही पड़ेगा ।

(९४)

जो दूसरेको दुःख देता है, उसका भजनमें मन नहीं लगता ।

(९५)

जो हमसे कुछ भी चाहता है, वह हमारा गुरु कैसे हो सकता है ?

(९६)

सन्तोषसे काम, क्रोध और लोभ‒तीनों नष्ट हो जाते हैं ।

(९७)

अपने लिये सुख चाहना आसुरी, राक्षसी वृत्ति है ।

(९८)

मिले हुएको अपना मत मानो तो मुक्ति स्वतःसिद्ध है ।

(९९)

अपने सुखसे सुखी होनेवाला कोई भी मनुष्य योगी नहीं होता ।

(१००)

याद रखो, भगवान्‌का प्रत्येक विधान आपके परम हितके लिये है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘सार-संग्रह’ पुस्तकसे