।। श्रीहरिः ।।

                    




           आजकी शुभ तिथि–
आश्विन (अधिक) कृष्ण, षष्ठी
वि.सं.२०७७, गुरुवा
सुगम साधन


प्रह्लादजी असुर-बालकोंको उपदेश देते हुए कहते हैं कि भगवान्‌की प्राप्तिमें क्या प्रयास हैकोऽतिप्रयासोऽसुरबालकाः (श्रीमद्भागवत ७/७/३८) ? विषयोंकी एक बात ध्यान देनेकी है कि संसारकी वस्तुएँ सब देशमें, सब समयमें नहीं है । उनकी प्राप्तिके लिए विशेष परिश्रम करना पड़ता है । परन्तु परमात्मा सब देशमें हैं, सब कालमें हैं, सम्पूर्ण व्यक्तियोंमें हैं, सम्पूर्ण घटनाओंमें हैं । ऐसा कोई देश, काल, व्यक्ति, वस्तु नहीं है, जहाँ परमात्मा न हों । उनकी प्राप्तिमें तो केवल तीव्र इच्छाकी आवश्यकता है । जैसे हमारे पास कोई चीज हो तो उस तरफ दृष्टि घुमाई और देखी ! परन्तु परमात्माको देखनेके लिए दृष्टि घुमानेकी भी आवश्यकता नहीं है; क्योंकि परमात्मा बाहर-भीतर सब जगह हैं । इसलिए उनकी प्राप्तिकी इच्छा करो और उनको प्राप्त कर लो !

परमात्माकी प्राप्तिमें प्रयासकी आवश्यकता नहीं है । इसमें तो केवल अभिलाषाकी आवश्यकता है । वह अभिलाषा भी कठिन नहीं है । वास्तवमें वह अभिलाषा मनुष्यमात्रमें स्वतः-स्वाभाविक है; क्योंकि मनुष्यमात्र अपनेमें कमीका अनुभव करता है । परन्तु उससे भूल यह होती है कि वह इसकी पूर्ति संसारसे करना चाहता है । संसारकी सब वस्तुएँ सभीको प्राप्त होती नहीं, हुई नहीं और होंगी भी नहीं तथा मिल भी गयीं तो रहेंगी नहीं । वस्तुएँ रह भी गयीं तो आप नहीं रहेंगे । उनसे वियोग तो अवश्य होगा । पहले भी वियोग था और बादमें भी वियोग होगा । बीचमें संयोग केवल दिखता है, वास्तवमें है नहीं । फिर भी हम उन वस्तुओंसे अपना सम्बन्ध मान लेते हैं और उनकी इच्छा करते हैं, यह बहुत बड़ी भूल है ।

आपने शरीरके साथ एकता मान ली कि यह शरीर मैं हूँ और शरीर मेरा है, यह है खास गलती ! आप शरीर नहीं है; क्योंकि यदि आप शरीर होते तो मरते ही नहीं और यदि मरते तो शरीरको साथ ले जाते । मरनेके बाद शरीर (मुर्दा) पड़ा रहता है तो उसमें भी हम होते । परन्तु न तो शरीर हमारे साथ जाता है और न शरीरके साथ हम रहते हैं । अतः अपनेको शरीर मानना भी गलत है और शरीरको अपना मानना भी गलत है । शरीरको हम जैसा रखना चाहें, वैसा रख नहीं सकते, इसपर हमारा वश नहीं चलता, फिर यह अपना कैसे ? यदि शरीर अपना नहीं है तो फिर धन, सम्पत्ति, वैभव, कुटुम्ब आदि अपने कैसे ? अतः संसार अपना नहीं है, अपने तो केवल भगवान्‌ ही हैंयह माननेमें क्या कठिनता है ? संसारको अपना माननेसे ही जो वास्तवमें अपने हैं, उन परमात्माको अपना माननेमें कठिनता हो रही है ।

परमात्मा अपने हैंयह शास्त्र कहता है, और संसार अपना नहीं हैयह आपका अनुभव कहता है । यह बात भले ही आप अभी न मान सको, भले ही आपसे मानी नहीं जा रही हो; परन्तु हिम्मत मत हारो । यह मत सोचो कि हम तो इस बातको मान नहीं सकते । भले ही हमारे माननेमें न आ रही हो, पर वास्तवमें ‘मैं शरीर हूँ’ यह बात है नहींइस बातको स्थिर रखो । आपके माननेमें आये चाहे न आये, अनुभव हो चाहे न होइसकी चिन्ता मत करो; परन्तु इस बातको रद्दी मत करो ।

शरीर ‘मैं’ नहीं है और ‘मेरा’ नहीं हैयह बात सच्‍ची है एवं मैं भगवान्‌का हूँ और भगवान्‌ मेरा हैयह बात भी सच्‍ची है । सच्‍ची होनेपर भी माननेमें नहीं आती तो यह हमारी एक कमजोरी है । हमारे न माननेसे सच्‍ची बात रद्दी (गलत) कैसे हो सकती है ?

श्रोताहम इस बातको रद्दी कैसे करते हैं ?

स्वामीजीइन्द्रियोंके द्वारा, बुद्धिके द्वारा हम जिन वस्तुओंको देखते हैं, उनको सच्‍ची और अपनी मान लेते हैं; इससे वह बात रद्दी हो जाती है । उन वस्तुओंमें अपनेपनका त्याग नहीं होता तो कोई बात नहीं; परन्तु ‘शरीर-संसार मेरे नहीं हैं’ यही बात सच्‍ची हैइतना आदर तो आपको करना ही चाहिये ! भगवान्‌ न दिखें तो न सही, पर ‘भगवान्‌ हमारे हैं, हम भगवान्‌के हैं’यह बात सच्‍ची है । ब्रह्माजी भी इस विषयमें कह दें कि ‘देखो, तुम संसारके हो और संसार तुम्हारा है, तुम भगवान्‌के नहीं हो और भगवान्‌ तुम्हारे नहीं हैं’, तो भी साफ कह दो कि ‘महाराज ! आपकी यह बात हम नहीं मानेंगे ।’ भले ही यह बात हमारे अनुभवमें न आयी हो, हमें पूरी न जँची हो; परन्तु बात यह सच्‍ची है ! भगवान्‌ स्वयं कहते हैं‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७) ‘यह जीव मेरा ही अंश है ।’ संत-महात्मा भी यही कहते हैं‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी’ (मानस, उत्तर ११७/२)इसलिए मैं हाथ जोड़कर आपसे प्रार्थना करता हूँ, मेरेपर आप इतनी कृपा करो कि आप मेरी बात आज मान लो । माननेसे भले ही आपमें कोई परिवर्तन न आये, पहलेकी तरह ही भूख-प्यास लगे, वैसे ही राग-द्वेष हों, पर कृपा करके इस बातको रद्दी मत करो । हम भगवान्‌के ही हैंऐसा मान लो, फिर अनुभव हो अथवा न हो, बोध हो अथवा न हो, इसकी परवाह मत करो । अन्तमें यह बात स्थिर हो जायगी; क्योंकि यह बात सच्‍ची है ।