यह सिद्धान्त है कि जो वस्तु मिलती है और बिछुड़ती है, वह अपनी नहीं होती । शरीर मिला है और बिछुड़ जायगा, फिर वह अपना कैसे हुआ ?
परमात्मा मिलने तथा बिछुड़नेवाले नहीं हैं । वे सदासे ही मिले हुए हैं और कभी
बिछुड़ते ही नहीं । उनका अनुभव नहीं होनेका दुःख नहीं है,
इसलिये देरी हो रही है । उनकी असली चाहना नहीं है । असली चाहना होगी तो तत्काल
प्राप्ति हो जायगी । परमात्मप्राप्ति शरीरादि जड़ पदार्थोंके द्वारा नहीं
होती, प्रत्युत इनके त्यागसे होती है । मन-बुद्धिकी
सहायतासे बोध नहीं होता, प्रत्युत इनके त्यागसे बोध होता है । योगदर्शनमें
अभ्यासका लक्षण बताया है‒ तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः । (१/१३) ‘किसी एक विषयमें स्थिति प्राप्त करानेके लिये बार-बार प्रयत्न करनेका नाम
अभ्यास है ।’ तत्त्वबोध
किसी स्थितिका नाम नहीं है । जहाँ स्थिति होगी, वहाँ गति भी होगी‒यह नियम है ।
तत्त्व स्थिति और गति‒दोनोंसे अतीत है । तत्त्वमें न स्थिति है, न गति है; न
स्थिरता है, न चंचलता है । जैसे भूख और प्यासके लिये
अभ्यास नहीं करना पड़ता, ऐसे ही तत्त्वकी जिज्ञासाके लिये अभ्यास नहीं करना पड़ता ।
हमारी आदत अभ्यास करनेकी पड़ी हुई है, इसलिये अभ्यासकी बात ही हमें जँचती है । अभ्यासका मैं खण्डन नहीं करता हूँ । अभ्यास करते-करते और नयी स्थिति होते-होते तत्त्वकी जिज्ञासा होकर उसकी
प्राप्ति हो सकती है । परन्तु यह बहुत लम्बा रास्ता है ।
कितने जन्म लगेंगे, इसका पता नहीं । अन्तमें भी जब अभ्यास छूटेगा अर्थात् जड़ता
(शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि)-से हमारा सम्बन्ध छूटेगा, तब तत्त्वप्राप्ति होगी । तत्त्वप्राप्ति जड़ताके द्वारा
नहीं होती, प्रत्युत जड़ताके त्यागसे होती है‒यह सिद्धान्त है । जड़ताकी
सहायताके बिना अभ्यास हो ही नहीं सकता । अतः अभ्यासके द्वारा जड़ताका त्याग नहीं हो
सकता । जिसकी सहायतासे अभ्यास करेंगे, उसका त्याग अभ्याससे कैसे होगा ? परन्तु
अभ्यासकी बात हरेक आदमीके भीतर जड़से बैठी हुई है, इसलिये बोध होनेमें कठिनता हो
रही है । बोध होनेमें अभ्यासको
हेतु माननेके कारण जल्दी बोध नहीं हो रहा है । यद्यपि
भगवन्नामका जप, कीर्तन, प्रार्थना भी अभ्यासके अन्तर्गत आते हैं, तथापि ये
अभ्याससे तेज हैं । कारण कि अभ्यासमें अपना सहारा रहता
है, पर जप, प्रार्थना आदिमें भगवान्का सहारा रहता है । ‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ !’
यह पुकार अभ्याससे तेज है । अभ्यासमें अपने उद्योगसे काम होता है, पर पुकारमें भगवान्की
कृपासे काम होता है । आप अभी अभ्यासके राज्यमें ही बैठे हुए हैं, आपके
संस्कार अभ्यासके हैं, इसलिये आप नामजप, कीर्तन,
प्रार्थनामें लग जाओ तो आपको बहुत लाभ होगा । नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒ ‘सब
साधनोंका सार’ पुस्तकसे |