परमात्माकी शक्तिसे ही सारा संसार चल रहा है, इसलिये सब वस्तुओंका मूल परमात्मतत्त्व है, उसके
शरण हो जाओ । यही एकमात्र रक्षाका सुगम उपाय है । कबीर साहबने कहा है‒ चलती चक्की देखकर दिया
कबीरा रोय । दो पाटन बीच आयके साबत बचा न कोय ॥ चक्की चलती है तो उसके दो पाटोंके बीचमें जो भी दाना आ जायगा, वह पिस जायगा; पर ‘कोई एक हरिजन ऊबरे कील माकड़ी पास’ कीलके पास, माकड़ीके
नीचे रहनेवाले दाने बच जाते हैं । ऐसे ही जो मनुष्य
संसारके आधार परमात्माका आश्रय ले लेते हैं, वे संसार-चक्रसे बच जाते हैं । अतः आप
परमात्माके शरण हो जाओ । ‘हे नाथ ! मैं आपके शरण हूँ ! आप कहाँ हो ? कैसे
हो ?‒यह आप जानो; मैं तो बस, आपके ही शरण हूँ ।’ भगवान्के स्वरूपको जाननेकी इतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी
आवश्यकता उनका आश्रय लेनेकी है । परमात्माके स्वरूपके विषयमें बहुत मतभेद हैं । कोई सगुण, कोई निर्गुण, कोई
निराकार, कोई साकार मानते है, ऐसे ही कोई द्वैत, अद्वैत, विशिष्ठाद्वैत,
द्वैताद्वित, शुद्धाद्वैत आदि मानते हैं‒इस प्रकार अनेक प्रकारकी मान्यताएँ हैं ।
हमें इस मतभेदके जालमें कभी नहीं फँसना है । यह एक प्रकारका जाल ही है । बस, हम तो
परमात्माके शरण हैं, वह कैसा ही हो और कहीं हो; हमारा आश्रय तो केवल वही है ।
हमारे लिये इतना ही पर्याप्त है‒ यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तेति नैयायिकाः । अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकाः सोऽयं नो विदधातु वाञ्छितफलं त्रैलोक्यनाथो हरिः ॥ (हनुमन्नाटक) मनुष्य अपनी अटकलसे परमात्माको जानता है, पर परमात्मा उस जानकारीसे भी विलक्षण है । यदि आप जैसा जानते हैं, परमात्माका वैसा ही स्वरूप है तो फिर जानना क्या बाकी रहा ? पूरे जानकार हो तो साधन क्या शेष रहा ? पूरे-से-पूरा जानकार भी परमात्माके विषयमें कुछ नहीं जानता । अनन्तको सीमित बुद्धिवाला क्या जानेगा ? उस सीमित बुद्धिवालेका जानना केवल उसकी बुद्धिका परिचयमात्र ही है; क्योंकि परमात्माके विषयमें पूरी तरह कोई नहीं जान सकता । आज दिनतक जैसा समझा वैसा ही मानकर उस परमात्माकी शरण लेना ही उत्तम है, परम आवश्यक है, पर जानना उतना आवश्यक नहीं है । |