हमारा शरण लेनेका स्वभाव तो है ही । कोई बेटे-पोतोंकी शरण है, कोई धनके शरण है, कोई मकानोंके
किरायेकी शरण है । कोई कहते हैं कि कमाकर खा लेंगे तो वे अपनी भुजाओंके बलके शरण
हैं । मनमें किसी-न-किसीका आश्रय पकड़ रखा है । बहिनों, माताओंने पति-पुत्रोंका
आश्रय पकड़ रखा है । अब मेरी एक प्रार्थना है कि आप कृपा
करो, केवल भगवान्का आश्रय पकड़ो । भगवान्के विमुख होनेपर तुच्छ-से-तुच्छ जीवोंकी
तथा वस्तुओंकी शरण ग्रहण करनी पड़ेगी । मारवाड़ी कहावत है ‘गरज गधेने बाप करे’ । गरज होनेपर गधेपर भार लादकर कहते
हैं‒‘बापो ! बापो ! चालो’ । भगवान्के रहते हुए हम संसारकी गरज क्यों करें ? काम करो, सेवा करो, सुख पहुँचाओ, सबको आदर दो पर हृदयमें
आश्रय केवल भगवान्का ही रखो । एक बार अकबर बादशाहकी सभामें कवियोंके सामने
समस्यापूर्ति रखी गयी ‘करि हैं आस अकबरकी’ ऐसा कहा; परन्तु एक सन्त कवि भी बैठे
थे, वे बोले ‘जिनके हरिकी परतीति नहीं, सो करि हैं आस अकबरकी’ जिन्हें भगवान्का भरोसा है, आश्रय है, वह अकबरकी आशा क्यों
करें ? हमने एक कहानी सुनी है । एक बारकी बात है । बादशाह अकबर
कहीं जंगलमें शिकारके लिये गये । साथमें बहुत आदमी थे, पर दैवयोगसे जंगलमें अकेले
भटक गये । आगे गये तो एक खेत दिखायी दिया । उस खेतमें पहुँचे और उस खेतके मालिकसे
कहा‒‘भैया ! मुझे भूख और प्यास बड़े जोरसे लगी है । तुम कुछ खाने-पीनेको दे दो ।
मैं राज्यका आदमी हूँ ।’ उसने कहा‒‘ठीक, आप हमारे तो मालिक ही हो ।’ यह कहकर उसने
भोजन करा दिया । खेतमें ऊख (गन्ना) थी, ऊखका रस पिला दिया । आराम करनेके लिये
खटिया बिछा दी । इससे बादशाह बहुत राजी हुआ । उसको ऐसा लगा कि ऐसा शर्बत मैंने कभी
नहीं पिया । जंगलमें रोटी भी बड़ी मीठी लगती है फिर
जिसमें भूख भी लगी हुई हो । जब बादशाह वापस जाने लगा तो उस किसानसे कहा‒‘कभी तुम्हारे
काम पड़ जाय तो दिल्लीमें आ जाना, मेरा नाम अकबर है । किसीसे मेरा नाम पूछ लेना ।’
और फिर कहा‒‘कलम, दवात-कागज ला, तुजे कुछ लिख दूँ ।’ खेतमें न कलम है, न दवात है,
न कागज है । खेतमें रहनेवाला बिचारा पढ़ा-लिखा तो था नहीं । फूटा हुआ मिट्टीका घड़ा
था । वह सामने रख दिया और एक कोयला ले आया ।
बादशाहने घड़ेकी ठीकरीके भीतरमें लिख दिया । अकबरने कहा‒‘मेरेसे जब मिलने
आओ, तब इसको साथ लेकर आना ।’ उसने कहा‒‘ठीक है ।’ उसने उस लिखे हुए घड़ेके टुकड़ेको
रख दिया । कई वर्षोंतक पड़ा रहा । जब अकाल पड़ा और अनाज कुछ हुआ नहीं, तब बड़ी तंगी आ गयी ।
अपने लिये अन्न और गायों-भैसोंके लिये घासतक नहीं रहा, पानी भी नहीं रहा । तब
स्त्रीने कहा‒‘राज्यका एक आदमी आया था न ? उसने कहा था कि आवश्यकता पड़े तब दिल्ली
आ जाना । उसके पास जाओ तो सही ।’ स्त्रीने बार-बार कहा तो ठीकरा लेकर वह वहाँसे चला
। दिल्लीमें पहुँचा तो लोगोंसे पूछा‒‘अकबरियेका घर कौन-सा है ?’ अकबरका नाम सुनकर
किसीने बता दिया । खास महलके दरवाजेपर जाकर पूछने लगा‒‘अकबरियेका घर यही है क्या
?’ द्वारपालोंने डाँटकर कहा‒कैसे बोलता है ? ढंगसे बोला कर । वह तो अपनी भाषामें सीधा बोला और उसने ठीकरी दिखाकर कहा‒‘जाकर कह दो एक आदमी आपसे मिलने आया है ।’ उसने जाकर कहा‒‘महाराज ! एक ग्रामीण आदमी है, असभ्यतासे बोलता है । बोलनेका भी होश नहीं है । वह आपसे मिलना चाहता है ।’ उसे बुलाया, बादशाह ऊँचे आसनपर बैठा था । उसने देखकर कहा‒‘ओ अकबरिया ! तू तो बहुत ऊँचा बैठा है ।’ बादशाहने कहा‒‘आओ भाई ! बैठो !’ उसे बैठाया और कहा‒‘तू थोड़ी देर बैठ जा । मेरी नमाजका समय हो गया है, इसलिये मैं नमाज पढ़ लूँ ।’ |