।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                                                 




           आजकी शुभ तिथि–
माघ अमावस्या वि.सं.२०७७, शुक्रवा
भक्तिकी अलौकिक विलक्षणता


जिस साधनमें अपना उद्योग मुख्य होता है, वह लौकिक होता है और जिस साधनमें भगवान्‌का आश्रय मुख्य होता है, वह अलौकिक होता है । कर्मयोग और ज्ञानयोग‒ये दोनों लौकिक साधन हैं; क्योंकि उसमें अपना उद्योग मुख्य है, इसलिये भगवान्‌ कहते हैं‒‘उद्धरेदात्मनात्मानम्’ (गीता ६/५) ‘अपने द्वारा अपना उद्धार करें’ । परन्तु भक्तियोग अलौकिक साधन है; क्योंकि इसमें भगवान्‌का सम्बन्ध मुख्य है, इसलिये भगवान्‌ कहते हैं‒‘तेषामहं समुद्धर्ता’ (गीता १२/७) ‘उनका उद्धार मैं करता हूँ’ । तात्पर्य है कि भगवान्‌का सम्बन्ध होनेसे सब अलौकिक हो जाता है अन्यथा सब लौकिक ही है ।

लौकिक साधनमें जगत्‌ और जीवकी मुख्यता होती है; क्योंकि ‘यह संसार है और मैं हूँ’‒इस प्रकार जगत्‌ और जीव दोनों हमारे प्रत्यक्ष होनेसे लौकिक हैं । परन्तु अलौकिक साधनमें भगवान्‌की मुख्यता होती है; क्योंकि भगवान्‌ हमारे प्रत्यक्ष न होनेसे अलौकिक हैं । यद्यपि लौकिक और अलौकिक‒दोनों ही साधनोंमें विवेक-विचार और श्रद्धा-विश्वासकी आवश्यकता है तथापि लौकिक साधनमें विवेक-विचारकी मुख्यता है और अलौकिक साधनमें श्रद्धा-विश्वासकी मुख्यता है । तात्पर्य है कि जगत्‌के लिये और अपने लिये ‘विचार’ की आवश्यकता है एवं भगवान्‌के लिये ‘विश्वास’ की आवश्यकता है ।

विचारकी आवश्यकता उस विषयमें होती है, जिस विषयमें हम कुछ जानते हैं, कुछ नहीं जानते अर्थात् अधूरा जानते हैं । जगत्‌ और स्वयंके विषयमें हम यह तो जानते हैं कि ‘संसार है और मैं हूँ’ पर ‘संसार क्या है ? मैं क्या हूँ ? इनका स्वरूप क्या है?’‒इस प्रकार हम इनको तत्त्वसे (यथार्थ रूपसे) नहीं जानते । इसलिये जगत्‌ और जीव‒दोनों विचारके विषय हैं ।

विश्वासकी आवश्यकता उस विषयमें होती है, जिस विषयमें हम कुछ भी नहीं जानते, जो हमारे लिये सर्वथा अज्ञात है । भगवान्‌के विषयमें हम कुछ नहीं जानते, इसलिये भगवान्‌ विश्वासके विषय हैं । तात्पर्य है कि ‘भगवान्‌ हैं’‒इस प्रकार उनपर विश्वास ही हो सकता है, ‘वे कैसे हैं’‒इस प्रकार उनपर विचार नहीं हो सकता, तर्क नहीं चल सकता । भगवान्‌को मानने अथवा न माननेमें मनुष्य स्वतन्त्र है ।

जिसको हम देखते हैं अथवा जानते हैं, उसपर विश्वास नहीं होता; क्योंकि वह तो हमारे सामने ही है । विश्वास उसीपर होता है, जिसको देखा अथवा जाना नहीं है, प्रत्युत सुना और माना है । जैसे माता-पिताको हमने देखा अथवा जाना नहीं है, प्रत्युत सुना और माना है । तात्पर्य है कि माता-पिताको हम केवल विश्वासके आधारपर ही अपना मानते हैं, इसके सिवाय और कोई उपाय नहीं है । ऐसे ही भगवान्‌को भी हम शास्त्रोंसे अथवा सन्तोंसे सुनकर मानते हैं । शास्त्र और सन्त भगवान्‌के विषयमें कहते हैं कि भगवान्‌ हमारे हैं, हमारेमें हैं, अभी हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वसुहृद् हैं, सर्वसमर्थ हैं और अद्वितीय हैं । इसपर विश्वास करना हमारा काम है और विश्वास करने अथवा न करनेमें हम स्वतन्त्र हैं ।