।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                                                  




           आजकी शुभ तिथि–
माघ शुक्ल प्रतिपदा वि.सं.२०७७, शुक्रवा
भक्तिकी अलौकिक विलक्षणता


भगवान्‌को प्राप्त तो कर सकते हैं, पर उनका वर्णन, चिन्तन, ध्यान नहीं कर सकते । प्राप्त इसलिये कर सकते हैं कि हम उनके ही अंश हैं । भगवान्‌की पूरी महिमाको बतानेवाले कोई शब्द, विशेषण, युक्ति या दृष्टान्त संसारकी किसी भाषामें है ही नहीं । भगवान्‌ तो सर्वथा ही अलौकिक हैं । इसलिये शास्त्रोंसे अथवा सन्तोंसे सुनकर हम भगवान्‌को मान तो सकते हैं, पर जान नहीं सकते । भगवान्‌को केवल विश्वाससे और उनकी कृपासे ही जान सकते हैं । इसके सिवाय और कोई उपाय है ही नहीं ।

वास्तवमें किसी-न-किसीपर विश्वास किये बिना मनुष्य रह सकता ही नहीं । अगर वह भगवान्‌पर विश्वास नहीं करेगा तो फिर अपने-आपपर अथवा संसारपर विश्वास करेगा । अपने-आपपर विश्वास करनेसे अगर वह शरीरको अपना स्वरूप मान लेगा तो उससे सम्पूर्ण दोषोंकी उत्पत्ति होगीदेहाभिमानिनि सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्ति शरीर-संसारपर विश्वास करना महान्‌ घातक है । शरीर-संसारपर विश्वास करके ही जीव जन्म-मरणरूप बन्धनमें पड़ा है, अन्य कोई कारण नहीं है । इसी तरह भगवान्‌पर विवेक-विचार करना महान्‌ घातक है, क्योंकि ऐसा करनेसे मनुष्य भगवान्‌को बुद्धिका विषय बना लेगा और कोरी बातें सीख जायगा, हाथ कुछ लगेगा नहीं ! सीखा हुआ ज्ञान अभिमान पैदा करता है और भगवान्‌से विमुख करता है, जो मनुष्यके पतनका हेतु है ।

संसारपर विश्वास करनेसे सम्पूर्ण दोषोंकी उत्पत्ति होती है । जैसे, वस्तुपर विश्वास करनेसे लोभ उत्पन्न होता है । व्यक्ति (शरीर)-पर विश्वास करनेसे मोह उत्पन्न होता है । परिस्थितिपर विश्वास करनेसे अभिमान उत्पन्न होता है कि मैं बड़ा धनी हूँ, ऊँचे पदवाला हूँआदि, अथवा दीनता उत्पन्न होती है कि मेरे पास कुछ नहीं है, मैं बड़ा अभागा हूँआदि । अवस्थापर विश्वास करनेसे परिच्छिन्नता उत्पन्न होती है कि मैं बालक हूँ, मैं जवान हूँआदि । यद्यपि कोई भी मनुष्य दोषी नहीं बनना चाहता, तथापि नाशवान्‌पर विश्वास करके वह न चाहते हुए भी दोषी बन ही जाता है । कारण कि नाशवान्‌पर विश्वास ही एक ऐसा दोष है, जिससे अनन्त दोष पैदा होते हैं ।

मनुष्य देश, काल, वस्तु, क्रिया, घटना, परिस्थिति और अवस्थाके परिवर्तनका अनुभव करता है और अभावका भी । फिर भी वह उसपर विश्वास करता है तो यह अन्धविश्वास है । वास्तवमें विश्वास अन्धा ही होता है । विश्वासकी आँख नहीं होती और जहाँ आँख होती है, वहाँ विश्वास नहीं होता । कारण कि जो प्रत्यक्ष दीखता है, उसपर विश्वास क्या करें ? परन्तु जैसा दीखता है, वैसा न मानकर और तरहसे मानना अन्धविश्वासकहलाता है; जैसेसंसार प्रत्यक्ष बदलते हुए और नष्ट होते हुए दीखता है, फिर भी उसपर विश्वास करना अन्धविश्वासहै । विवेक-विरुद्ध विश्वास ही अन्धविश्वास होता है । इस अन्धविश्वासका परिणाम यह होता है कि वह अधर्मको धर्म और उलटेको सुलटा मान लेता है[*] ! वह पराधीनताको स्वाधीनता, तुच्छताको श्रेष्ठता, पतनको उत्थान मान लेता है ।


[*] अधर्मं   धर्ममिति  या   मन्यते   तमसावृता ।

   सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ॥

(गीता १८/३२)