।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                                                             




           आजकी शुभ तिथि–
माघ शुक्ल एकादशी वि.सं.२०७७, मंगलवा

सदुपयोगसे कल्याण


मनुष्योंने वस्तुओंको, व्यक्तियोंको बड़ा महत्त्व दे दिया है; परन्तु वास्तवमें इनका महत्त्व नहीं है । महत्त्व इनके उपयोगका है । इनका सदुपयोग और दुरुपयोग दोनों हो सकते हैं । अगर सदुपयोग किया जाय तो हरेक देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि मनुष्यका कल्याण करनेवाली हो जाती है । सदुपयोग या दुरुपयोग करनेमें मनुष्य स्वतन्त्र है । परिस्थिति आदिको अपने अनुकूल बनानेमें कोई भी स्वतन्त्र नहीं है ।

प्रायः मनुष्य वस्तुओंको ही ज्यादा महत्त्व देते हैं, उनके सदुपयोगकी तरफ ध्यान नहीं देते । इस कारण वे परतन्त्र हो जाते हैं, फँस जाते हैं । उनके सामने ‘क्या करें ? कैसे करें ?’‒ऐसी विकट परिस्थिति आ जाती है । इससे बचनेके लिये इस बातको सीखनेकी आवश्यकता है कि उनका सदुपयोग कैसे किया जाय ? परिस्थितियाँ तो मनुष्यके सामने आती-जाती रहती हैं, बदलती रहती हैं । न तो कोई परिस्थिति एक समान रहती है, न वस्तुएँ एक समान रहती है, न व्यक्ति एक समान रहते हैं, न अवस्था एक समान रहती है । ये सब बदलते रहते हैं । अगर इन बदलनेवालोंका अच्छे-से-अच्छा उपयोग किया जाय तो ये सब कल्याण करनेवाले हो जायँगे ।

सबसे पहले एक बात समझनेकी है । आप और आपकी परिस्थिति, आप और आपकी वस्तु, आप और आपकी अवस्था, आप और आपका समुदाय, आप और आपका देश, आप और आपका समय‒ये दोनों अलग-अलग हैं । तात्पर्य है कि उत्पन्न और नष्ट होनेवाली जितनी चीजें हैं, वे सब प्रकृतिकी अंश हैं और आप परमात्माके अंश हैं । आप नित्य-निरन्तर रहनेवाले हैं । परन्तु प्रकृतिसे उत्पन्न चीजें नित्य-निरन्तर बदलनेवाली हैं, कभी एक क्षण भी एकरूप रहनेवाली नहीं हैं । इनका संयोग और वियोग हरदम होता रहता है । नदीके प्रवाहकी तरह इनका प्रवाह हरदम चलता रहता है ।

आप रहनेवाले हैं‒‘नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः’ (गीता २/२४) । आप अनादिकालसे अचल हैं और ये सब (शरीर, संसार) चल हैं । चल वस्तुओंको लेकर अचलपर असर क्यों पड़ जाता है ? क्योंकि चल वस्तुओंके साथ अचल अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है । शरीर और शरीरमें रहनेवाले आप‒ये दो हैं । आप शरीर नहीं है और शरीर आपका नहीं है । परन्तु गलती यह हुई कि आपने शरीरमें अहन्ता-ममता कर ली । अपनेको शरीरमें बैठा दिया तो ‘अहन्ता’ पैदा हो गयी और शरीर आदि वस्तुओंको अपनेमें बैठा लिया तो ‘ममता’ पैदा हो गयी । मैं शरीर हूँ‒ऐसा मान लेनेसे अहन्ता पैदा हो जाती है और शरीर आदि वस्तुएँ मेरी हैं‒ऐसा मान लेनेसे ममता पैदा हो जाती है । अहन्ताको लेकर भेदभाव होता है और ममताको लेकर संघर्ष होता है । ये दोनों बन्धनकारक हैं ।