जो सब जगह विद्यमान है, जिसका
कहीं भी अभाव नहीं है, उसकी प्राप्तिमें देरीका कारण यही है कि उसको हम
चाहते नहीं । उसकी प्राप्ति
न होनेमें पाप कारण नहीं है । अगर पाप कारण हो तो पाप प्रबल हुआ, परमात्मा कमजोर
हुए ! परन्तु यह सम्भव है ही नहीं । मनुष्यकी जो नीच वृत्ति या कृत्य है, उसका नाम
पाप है । पाप टिकनेवाला है ही नहीं । सत्संगसे, नामजपसे,
गंगास्नानसे पाप टिकते ही नहीं । बड़े-से-बड़ा पाप क्यों न हो, उसमें टिकनेकी ताकत
ही नहीं है । पापकी सत्ता है ही नहीं । सत्ता एक परमात्माकी ही है ।
परमात्मा पापमें भी हैं, पुण्यमें भी हैं, अच्छेमें भी हैं, मन्देमें भी हैं;
शुद्धिमें भी हैं, गन्दगीमें भी हैं । किसीने मेरेसे कहा कि तुम्हारे भगवान् तो
नरकोंमें हैं । मैंने कहा कि हमारे भगवान् तो सब जगह हैं; स्वर्गमें भी हैं,
नरकमें भी हैं । तुम्हारे पूर्वज नरकोंमें गये तो उन्होंने वहाँका समाचार दे दिया
! भगवान्से खाली जगह कोई हो सकती ही नहीं । वे सब जगह
परिपूर्ण हैं । केवल उनकी प्राप्तिकी इच्छा हो, साथमें दूसरी कोई इच्छा न हो तो
एक-दो दिन भले ही लग जायँ, उनकी प्राप्ति जरूर होगी । भगवान्के सिवाय
हमारेको न धन चाहिये, न सम्पत्ति चाहिये, न वाह-वाह चाहिये, न आदर चाहिये, न
सत्कार चाहिये, न महिमा चाहिये, न और कुछ चाहिये तो भगवत्प्राप्ति जरूर हो जायगी,
इसमें सन्देह नहीं है । परमात्मा कैसे मिलें ?‒इस बातकी
जागृति हरदम रहेगी तो परमात्मा कैसे छिपे रहेंगे ? भूख लगे तो खा लें, प्यास लगे तो जल पी लें,
नींद आये तो सो जायँ । हठ
नहीं करना है । भोजनमें स्वाद, सुख नहीं लेना है । जल पीनेमें सुख नहीं लेना है । सोनेमें
सुख नहीं लेना है । जैसे रोग होनेपर दवा लेते हैं, ऐसे भूख लगनेपर रोटी खा लें ।
दवा लेनेमें सुख थोड़े ही लेते हैं ? दवामें रुचि थोड़े ही होती है ? इच्छा केवल परमात्माकी ही रहे । इससे सुगम
साधन और क्या होगा ! दूसरी इच्छाएँ साथमें रखते हैं‒यही बाधा है । मनुष्य कैसा ही पापी हो या मूर्ख हो, वह परमात्मप्राप्तिका
पात्र है । परमात्मप्राप्तिके लिये कोई भी कुपात्र नहीं है । केवल एक लालसा होनी
चाहिये । दूसरी लालसा ही बाधक है । अगर भूख, प्यास और नींद तंग न करे तो
खानेकी, पीनेकी और सोनेकी भी जरूरत नहीं । रोटी खाकर, पानी पीकर, नींद लेकर क्या
कोई जी सकता है ? रोटी खाते, पानी पीते, नींद लेते हुए भी मनुष्य मर जाता है ।
जीनेकी ताकत अन्नमें, जलमें, नींदमें नहीं है । किसी भी वस्तुमें जीनेकी ताकत नहीं
है । अगर भूखे रहनेसे मनुष्य मर जाता है तो खाते-पीते हुए भी मनुष्य मर जाता है ।
एक दिन मरना तो पड़ेगा ही, फिर नया नुकसान क्या हुआ ? जो जानेवाला है, वही हुआ ।
परन्तु मैं भूखे-प्यासे रहकर मरनेके लिये नहीं कहता ।
अतः भूख-प्यास लगे तो अन्न-जल ले लें, नींद आये तो सो जायें, पर अपनी आवश्यकताको न भूलें । उसको
हरदम जाग्रत रखें । परमात्मप्राप्तिमें समय लगाना हमारे अधीन है,
चाहे एक घड़ीमें प्राप्ति कर लें, चाहे अनेक दिनों-महीनों-वर्षोंमें । फर्क हमारी चाहनामें है । परमात्माके मिलनेमें फर्क नहीं है ।
भगवान्ने कहा है‒ सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं । जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥ (मानस, सुन्दरकाण्ड ४४/१) भगवान्के सम्मुख हो जायँ तो करोड़ों जन्मोंके पाप उसी क्षण नष्ट हो जायँगे । पापोंमें, दुराचारोंमें, अवगुणोंमें ताकत नहीं है कि वे भगवान्को रोक दें । भगवान्को रोकनेकी ताकत किसीमें हो ही नहीं सकती । अगर कोई भगवान्को रोक दे तो वे भगवान् हमें मिलकर क्या निहाल करेंगे । वे भगवान् हमारे किस कामके, जो किसीके द्वारा अटक जायँ ! केवल हमारी एक चाहनाकी आवश्यकता है । साधकको यही सावधानी रखनी है कि इस चाहनाकी कभी विस्मृति न हो । फिर भगवत्प्राप्तिमें कठिनता और देरी नहीं रहेगी । नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒ ‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे |