गजेन्द्रने कहा था‒ यः कश्चनेशो बलिनोऽन्तकोरगात् प्रचण्डवेगादभिधावतो
भ्रुशम् । भीतं प्रपन्नं परिपाति यद्भया- न्मृत्युः
प्रधावत्यरणं तमीमहि ॥ (श्रीमद्भागवत ८/२/३३) ‘जो कोई ईश्वर प्रचण्ड वेगसे दौड़ते हुए अत्यन्त बलवान् कालरूपी साँपसे भयभीत होकर
शरणमें आये हुएकी रक्षा करता है और जिससे भयभीत होकर मृत्यु भी दौड़ रही है, उसीकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ ।’ गजेन्द्रके कथनका तात्पर्य है कि ईश्वर कैसा है,
उसका क्या नाम है‒यह सब मैं नहीं जानता, पर जो कोई ईश्वर है, उसकी मैं शरण लेता हूँ । इस प्रकार हम भी ईश्वरकी शरण हो जायँ
तो वह गुरु भेज देगा अथवा स्वयं ही गुरु हो जायगा । हम भगवान्के अंश हैं‒‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७);
अतः हमारे गुरु, माता, पिता आदि सब वे ही हैं । वास्तवमें हमें गुरुसे सम्बन्ध
नहीं जोड़ना है, प्रत्युत भगवान्से ही सम्बन्ध जोड़ना है । सच्चा गुरु वही होता है,
जो भगवान्के साथ सम्बन्ध जोड़ दे । भगवान्के साथ सम्बन्ध जोड़नेके लिये किसीकी
सलाह लेनेकी जरूरत नहीं है । भगवान्के साथ जीवमात्रका स्वतन्त्र सम्बन्ध है ।
उसमें किसी दलालकी जरूरत नहीं है । हम पहले गुरु बनायेंगे, फिर गुरु हमारा सम्बन्ध
भगवान्के साथ जोड़े तो भगवान् हमारेसे एक पीढ़ी दूर हो गये ! हम पहलेसे ही सीधे
भगवान्के साथ सम्बन्ध जोड़ लें तो बीचमें दलालकी जरूरत ही नहीं । मुक्ति हमारे न
चाहनेपर भी जबर्दस्ती आयेगी‒ अति दुर्लभ कैवल्य परम पद
। संत पुरान निगम आगम बद ॥ राम भजत सोई मुकुति गोसाई । अनइच्छत आवइ बरिआईं ॥ (मानस, उत्तर॰ ११९/२) इसलिये भगवान् गीतामें कहते हैं‒ मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां
नमस्कुरु । (गीता ९/३४, १८/६५) ‘तू मेरा भक्त हो जा,
मुझमें मनवाला हो जा, मेरा पूजन करनेवाला हो जा और मुझे नमस्कार कर ।’ सर्व धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं
व्रज । (गीता १८/६६) ‘सम्पूर्ण धर्मोंका
आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा ।’ भगवान् गुरु न बनकर अपनी शरणमें आनेके लिये कहते
हैं । नारायण ! नारायण !! नारायण !!! |