‘योग’ नाम किसका है ? पातञ्जलयोगदर्शनने चित्तकी
वृत्तियोंके निरोधको योग कहा है–‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:’
(१/२) । परन्तु गीता समताको योग कहती है–‘समत्वं योग उच्यते’
(२/४८) । यह समता नित्य रहती है ।
संयोगसे पहले भी समता है, अन्तमें वियोग होनेपर भी समता है
और संयोगके समय भी समता है । इस प्रकार समतामें नित्य स्थिति ही नित्ययोग है ।
इसलिए नित्ययोगका जिसको अनुभव हो गया है; उसको गीताने
‘योगारूढ़’ कहा है । योगारूढ़की पहचान क्या है
? इसके लिये गीताने तीन बातें बतायी हैं–पदार्थोंमें आसक्ति न होना, क्रियाओंमें आसक्ति न
होना और सम्पूर्ण संकल्पोंका त्याग होना— यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते । सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥ (गीता ६/४) तात्पर्य है कि इन्द्रियोंके
भोगोंमें और क्रियाओंमें आसक्ति न हो तथा भीतरसे यह आग्रह भी न हो कि ऐसा होना
चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिए । ‘संकल्प’ नाम किसका है ? ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना
चाहिये, ऐसा मिलना चाहिये और ऐसा नहीं मिलना चाहिये, ऐसा संयोग होना चाहिये और ऐसा संयोग नहीं होना चाहिये—इसको ‘संकल्प’
कहते हैं । अतः न तो पदार्थोंमें
आसक्ति हो और न पदार्थोंके अभावमें आसक्ति हो, न
क्रियाओंमें आसक्ति हो और न क्रियाओंके अभावमें आसक्ति हो तथा कोई संकल्प न हो तो ‘योगारूढ़’ हो गया । तात्पर्य है कि पदार्थ मिले या
न मिले, क्रिया हो या न
हो, इनका कोई आग्रह नहीं हो—‘नैव
तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’ (गीता ३/१८) । पदार्थ मिलें तो अच्छी बात, न मिलें तो
अच्छी बात ! क्रिया हो तो अच्छी बात, न हो तो अच्छी बात !
संकल्प पूरा हो तो अच्छी बात, न हो तो अच्छी बात ! वृत्तियोंका
निरोध हो तो अच्छी बात, न हो तो अच्छी बात ! अपना सम्बन्ध
नहीं है इनसे ।
इन्द्रियोंके भोगोंमें और
कर्मोंमें आसक्ति न होनेका अर्थ हुआ—अचाह और अप्रयत्न होना ।
इन्द्रियोंके भोगोंमें, पदार्थोंमें आसक्ति न हो तो ‘अचाह’ हो गये और क्रियाओंमें आसक्ति न हो तो ‘अप्रयत्न’ हो गये । तात्पर्य है कि चाहनाका भी अभाव
हो और प्रयत्नका भी अभाव हो । अचाह और अप्रयत्न हुए तो
परमात्मासे अभिन्नता स्वतः हो गयी । वास्तवमें अभिन्नता हो नहीं गयी, अभिन्नता थी । अचाह और अप्रयत्न न होनेसे उसका
अनुभव नहीं होता था । चाह और क्रियाका अभाव हुआ तो स्वरूपमें स्थितिका, नित्ययोगका अनुभव हो गया । |

