।। श्रीहरिः ।।

                                                                            


आजकी शुभ तिथि–
     ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी, वि.सं.२०७८ सोमवार
                  निर्जला-एकादशी व्रत
         नित्ययोगकी प्राप्ति

योगनाम किसका है ? पातञ्जलयोगदर्शनने चित्तकी वृत्तियोंके निरोधको योग कहा हैयोगश्चित्तवृत्तिनिरोध:’ (१/२) । परन्तु गीता समताको योग कहती हैसमत्वं योग उच्यते’ (२/४८) । यह समता नित्य रहती है । संयोगसे पहले भी समता है, अन्तमें वियोग होनेपर भी समता है और संयोगके समय भी समता है । इस प्रकार समतामें नित्य स्थिति ही नित्ययोग है । इसलिए नित्ययोगका जिसको अनुभव हो गया है; उसको गीतानेयोगारूढ़कहा है । योगारूढ़की पहचान क्या है ? इसके लिये गीताने तीन बातें बतायी हैंपदार्थोंमें आसक्ति न होना, क्रियाओंमें आसक्ति न होना और सम्पूर्ण संकल्पोंका त्याग होना

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु   न  कर्मस्वनुषज्जते ।

सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी     योगारूढस्तदोच्यते ॥

(गीता ६/४)

तात्पर्य है कि इन्द्रियोंके भोगोंमें और क्रियाओंमें आसक्ति न हो तथा भीतरसे यह आग्रह भी न हो कि ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिए । संकल्पनाम किसका है ? ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये, ऐसा मिलना चाहिये और ऐसा नहीं मिलना चाहिये, ऐसा संयोग होना चाहिये और ऐसा संयोग नहीं होना चाहियेइसकोसंकल्पकहते हैं । अतः न तो पदार्थोंमें आसक्ति हो और न पदार्थोंके अभावमें आसक्ति हो, न क्रियाओंमें आसक्ति हो और न क्रियाओंके अभावमें आसक्ति हो तथा कोई संकल्प न हो तो योगारूढ़हो गया । तात्पर्य है कि पदार्थ मिले या न मिले, क्रिया हो या न हो, इनका कोई आग्रह नहीं होनैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’ (गीता ३/१८) । पदार्थ मिलें तो अच्छी बात, न मिलें तो अच्छी बात ! क्रिया हो तो अच्छी बात, न हो तो अच्छी बात ! संकल्प पूरा हो तो अच्छी बात, न हो तो अच्छी बात ! वृत्तियोंका निरोध हो तो अच्छी बात, न हो तो अच्छी बात ! अपना सम्बन्ध नहीं है इनसे ।

इन्द्रियोंके भोगोंमें और कर्मोंमें आसक्ति न होनेका अर्थ हुआअचाह और अप्रयत्न होना । इन्द्रियोंके भोगोंमें, पदार्थोंमें आसक्ति न हो तोअचाहहो गये और क्रियाओंमें आसक्ति न हो तो अप्रयत्नहो गये । तात्पर्य है कि चाहनाका भी अभाव हो और प्रयत्नका भी अभाव हो । अचाह और अप्रयत्न हुए तो परमात्मासे अभिन्नता स्वतः हो गयी । वास्तवमें अभिन्नता हो नहीं गयी, अभिन्नता थी । अचाह और अप्रयत्न न होनेसे उसका अनुभव नहीं होता था । चाह और क्रियाका अभाव हुआ तो स्वरूपमें स्थितिका, नित्ययोगका अनुभव हो गया ।