संसारमें जितने भी पदार्थ हैं, वे सब-के-सब
आगन्तुक हैं अर्थात् हरेक पदार्थका संयोग और वियोग होता है । क्रियाओंका आरम्भ
होना क्रियाओंका संयोग है और क्रियाओंका समाप्त हो जाना क्रियाओंका वियोग है । ऐसे
ही संकल्पोंका भी संयोग और वियोग होता है । संकल्प पैदा हो गया तो संयोग हो गया ।
और संकल्प मिट गया तो वियोग हो गया । अतः संयोग और वियोग पदार्थोंके साथ भी है ।
क्रियाओंके साथ भी है और मानसिक भावोंके साथ भी है । संयोग और वियोग–दोनोंमें अगर
विचार किया जाय तो जो संयोग है, वह अनित्य है और जो वियोग है,
वह नित्य है । यह खास समझनेकी बात है । जैसे, आपका
और हमारा मिलना हुआ तो यह संयोग हुआ एवं आपका और हमारा बिछुड़ना हो गया तो यह
वियोग हुआ । मिलनेके बाद बिछुड़ना जरुर होगा, परन्तु
बिछुड़नेके बाद फिर मिलना होगा–यह नियम नहीं । अतः वियोग
नित्य है । पहले आप नहीं मिले तो वियोग रहा और आप बिछुड़ गए तो वियोग रहा । वियोग
स्थायी रहा । जितनी देर आप मिले हैं, उतनी देर यह संयोग भी
निरन्तर वियोगमें ही बदल रहा है । जैसे, एक आदमी पचास वर्ष
लखपति रहा । जब उसे लखपति हुए एक वर्ष हो गया, तब पचास
वर्षोमेंसे एक वर्ष कम हो गया अर्थात् एक वर्षका वियोग हो गया । अतः संयोगकालमें
भी वियोग है । संयोगसे होनेवाले जितने भी सुख हैं, वे सब दुःखोंके कारण अर्थात् दुःख पैदा करनेवाले हैं–‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते’ (गीता ५/२२) । अत: संयोगमें ही दुःख होता है । वियोगमें दुःख नहीं होता । वियोग (संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद)-में जो सुख है, वह अनन्त है, अपार है । उस सुखका वियोग नहीं होता; क्योंकि वह नित्य है । जब संयोगमें भी वियोग है और वियोगमें भी वियोग है तो वियोग ही नित्य हुआ । इस नित्य वियोगका नाम ‘योग’ है । गीता कहती है–‘तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगंयोगसञ्ज्ञितम्’ (गीता ६/२३) अर्थात् दुःखोंके संयोगका जहाँ सर्वथा वियोग है, उसको योग कहते हैं । अत: संसारके साथ वियोग नित्य है और परमात्माके साथ योग नित्य है । |

