।। श्रीहरिः ।।

                                                                         


आजकी शुभ तिथि–
     ज्येष्ठ शुक्ल नवमी, वि.सं.२०७८ शनिवार

      सबसे सुगम परमात्मप्राप्ति

चिन्मय सत्तामात्र अक्रिय है और उसमें अनन्त सामर्थ्य है । भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, लययोग, हठयोग आदि जितने भी योग हैं, वे सब इस अक्रिय तत्त्वसे ही प्रकट होते हैं । यह अक्रिय तत्त्व सम्पूर्ण साधनोंकी भूमि है अर्थात्‌ सभी साधन इसीसे प्रकट होते हैं और इसीमें लीन होते हैं । चुप साधनसे अक्रिय तत्त्व (सत्तामात्र)-में अपनी स्वतः-स्वाभाविक तथा सहज स्थितिका अनुभव हो जाता है अर्थात्‌ अहम्‌ मिट जाता है और सम, शान्त, सद्‌घन, चिद्‌घन, आनन्दघन परमात्मतत्त्व शेष रह जाता है‒

ढूँढ़ा सब जहाँ में,   पाया  पता  तेरा  नहीं ।

जब पता तेरा लगा तो अब पता मेरा नहीं ॥

सन्तोंने इस अवस्थातीत सहजावस्थाका वर्णन इस प्रकार किया है‒

अपन पौ आपहि में पायो ।

शब्द-हि-शब्द भयो उजियारा, सतगुरु भेद बतायो ॥

जैसे  सुन्दरी  सुत लै  सूती,   स्वप्ने   गयो   हिराई ।

जागा परी पलंग पर पायो,  न  कछु गयो न आई ॥

जैसे कुँवरी कंठ  मणि  हीरा,  आभूषण  बिसरायो ।

संग सखी मिलि भेद बतायो, जीव को भरम मिटायो ॥

जैसे  मृग  नाभी  कस्तूरी,  ढूँढ़त  बन  बन  धायो ।

नासा स्वाद भयो जब वाके, उलटि निरन्तर आयो ॥

कहा कहूँ वा सुख की महिमा, ज्यों गूंगे गुड़ खायो ।

कहै कबीर सुनो भाई साधो, ज्यों-का-त्यों ठहरायो ॥

तात्पय है कि जो साधक अपनेमें ‘मैं हूँ’‒इस प्रकार परिछिन्न (एकदेशीय) सत्ताका अनुभव करता था, वही ‘मैं’ (अहम्‌)-के मिटनेपर अपरिछिन्न सत्ताका अनुभव कर लेता है अर्थात्‌ ‘हूँ’ में ही ‘है’ को पा लेता है । फिर ‘हूँ’ नहीं रहता, प्रत्युत एकमात्र ‘है’ ही रहता है ।

राग-द्वेष, हर्ष-शोक, कर्तृत्व-भोक्तृत्व, जड़ता, परिछिन्नता आदि सब विकार अहम्‌में रहते हैं । उस अहम्‌को साधकने अपनेमें स्वीकार किया है, इसलिये अहम्‌को मिटानेके लिये अपनेमें परमात्मतत्त्वको स्वीकार करना अर्थात्‌ ‘हूँ’ में ‘है’ को स्वीकार करना आवश्यक है ।

एक मार्मिक बात है कि ‘हूँ’ में ‘है’ को मिलानेकी अपेक्षा ‘हूँ’ को ‘है’ में मिलाना बढ़िया है । ‘मैं’ भगवान्‌का ही हूँ, अन्य किसीका नहीं हूँ‒इस प्रकार अपने-आपको भगवान्‌के अर्पित कर देना, भगवान्‌की शरणमें चले जाना ही ‘हूँ’ को ‘है’ में मिलाना है । ‘हूँ’ में ‘है’ को मिलानेसे सूक्ष्म परिछिन्नता रह सकती है; क्योंकि ‘हूँ’ में अनादिकालसे परिछिन्नताके संस्कार पड़े हुए हैं, जो कि ‘है’ में नहीं हैं । इसलिये ‘हूँ’ को ‘है’ के अर्पित करनेसे परिछिन्नताका, अहम्‌का सुगमतापूर्वक सर्वथा अभाव हो जाता है ।

चाहे ‘हूँ’ को ‘है’ में मिलायें, चाहे ‘है’ में ‘हूँ’ को मिलायें, दोनोंका परिणाम एक ही होगा अर्थात्‌ ‘हूँ’ नहीं रहेगा, ‘है’ रह जायगा । जैसे‒कर्मयोगी कर्ममें अकर्मको तथा अकर्ममें कर्मको देखता है‒‘कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः’ (गीता ४/१८); अतः परिणाममें कर्म नहीं रहता, अकर्म रह जाता है । ज्ञानयोगी सम्पूर्ण प्राणियोंमें आत्माको तथा आत्मामें सम्पूर्ण प्राणियोंको देखता है‒‘सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि’ (गीता ६/२९); अतः परिणाममें प्राणी नहीं रहते, आत्मा रह जाती है । भक्तियोगी सबमें भगवान्‌को और भगवान्‌में सबको देखता है‒‘यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति’ (गीता ६/३०); अतः परिणाममें सब नहीं रहते, भगवान्‌ रह जाते हैं । अकर्म, आत्मा और भगवान्‌‒तीनों तत्त्वसे एक ही हैं ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘तत्त्वज्ञान कैसे हो ?’ पुस्तकसे