।। श्रीहरिः ।।

                                                                          


आजकी शुभ तिथि–
     ज्येष्ठ शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७८ शुक्रवार

      सबसे सुगम परमात्मप्राप्ति

आजतक देव, राक्षस, पशु, पक्षी, मनुष्य आदि अनेक योनियोंमें जो भी कर्म किये हैं और उनका फल भोग है, उनमेंसे कोई भी कर्म और फलभोग सत्तातक नहीं पहुँचा ! आकाशमें कभी सूर्यका प्रकाश फैल जाता है, कभी अँधेरा छा जाता है, कभी धुआँ छा जाता है, कभी काले बादल छा जाते हैं, कभी बिजली चमकती है, कभी वर्षा होती है, कभी ओले गिरते हैं, कभी तरह-तरहके शब्द होते हैं, गर्जना होती है; परन्तु आकाशमें कोई फर्क नहीं पड़ता । वह ज्यों-का-त्यों निर्लिप्त-निर्विकार रहता है । ऐसे ही सर्वत्र परिपूर्ण सत्तामें कभी महासर्ग और महाप्रलय होता है, कभी सर्ग और प्रलय होता है, कभी जन्म और मृत्यु होती है, कभी अकाल पड़ता है, कभी बाढ़ आती है, कभी भूचाल आता है, कभी धमासान युद्ध होता है; परन्तु सत्तामें कोई फर्क नहीं पड़ता । कितनी ही उथल-पुथल हो जाय, पर सत्ता ज्यों-की-त्यों निर्लिप्त-निर्विकार रहती है । इसलिये गीतामें आया है‒

समं   सर्वेषु   भूतेषु      तिष्ठन्तं   परमेश्वरम् ।

विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥

(१३/२७)

‘जो नष्ट होते हुए सम्पूर्ण प्राणियोंमें परमात्माको नाशरहित और समरूपसे स्थित देखता है, वही वास्तवमें सही देखता है ।’

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।

यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥

(१३/२९)

‘जो सम्पूर्ण क्रियाओंको सब प्रकारसे प्रकृतिके द्वारा ही की जाती हुई देखता है और अपने-आपको अकर्ता देखता अर्थात्‌ अनुभव करता है, वही वास्तवमें सही देखता है ।’

इस प्रकार सत्तामात्रमें स्थितिका अनुभव करके चुप हो जाना चाहिये । चुप होनेके लिये साधक तीन बातोंपर विचार करे‒

(१)  ‘मैं’ और ‘मेरा’ कुछ नहीं है; क्योंकि स्वरूप सत्तामात्र है और सत्तामात्रके सिवाय दूसरा कुछ नहीं है, फिर मैं और मेरा कौन हुआ ?

(२) मेरेको कुछ नहीं चाहिये; क्योंकि सत्तामें किंचिन्मात्र भी कोई कमी नहीं है, फिर वस्तुकी इच्छा कैसे की जाय ?

(३) अपने लिये कुछ नहीं करना है; क्योंकि जिन करणोंसे कर्म होते हैं, वे करण भी प्रकृतिमें हैं और जो कर्म करनेवाला है, वह अहंकार (कर्तापन) भी प्रकृतिमें है । अतः स्वरूपमें करनेकी योग्यता भी नहीं है और करनेका दायित्व भी नहीं है ।

इस प्रकार विचार करके चुप हो जाय, सब ओरसे विमुख होकर सत्तामात्रमें स्थिर हो जाय । यह ‘चुप साधन’ है । न तो स्थूलशरीरकी क्रिया हो, न सूक्ष्मशरीरका चिन्तन हो और न कारणशरीरकी सुषुप्ति हो, तब चुप साधन होता है । इसमें कोई क्रिया नहीं है, प्रत्युत जिससे क्रिया प्रकाशित होती है, उस अक्रिय तत्त्वमें स्वतःसिद्ध स्थिति है । इसमें वृत्तिको लगाना या हटाना भी नहीं है, प्रत्युत जिस ज्ञानके अन्तर्गत वृत्ति दीखती है, उस ज्ञानमें स्वतःसिद्ध स्थिति है । यह चुप साधन समाधिसे भी ऊँची चीज है; क्योंकि इसमें बुद्धि और अहम्‌से सम्बन्ध विच्छेद है । इसलिये समाधिमें तो लय, विक्षेप, कषाय और रसास्वाद‒ये चार दोष (विघ्न) रहते हैं, पर चुप साधनमें ये दोष नहीं रहते ।