दुष्टोंका विनाश, भक्तोंका परित्राण (रक्षा) और धर्मकी अच्छी तरहसे
स्थापना, इसके लिये भगवान् अवतार
लेते हैं । दुष्टोंका विनाश करना, भक्तोंकी रक्षा करना ।
इसका अर्थ यह नहीं कि दुष्टोंको मार देना और भक्तोंको न मरने देना, पर भक्त भी तो मर जाते हैं । तो रक्षाका अर्थ उनके शरीरोंको ‘है ज्यों कायम रखना’‒यह
नहीं है । इसका अर्थ है ‘उनके भावोंकी रक्षा ।’ भक्तकी
दृष्टिमें शरीरका कोई मूल्य नहीं है । वहाँ मूल्य है ‘भगवद्भक्ति’ का । भगवान्की तरफ चलनेवाले मंसूर आदिने फाँसी स्वीकार कर ली हँसते-हँसते । शरीरकी वहाँ कोई इज्जत नहीं है । इसको तो ‘एकान्तविध्वंसिषु’
कहा है । यह नष्ट होनेवाला ही है, यह तो नष्ट होनेवाली चीज है‒‘पिण्डेषु नास्था भवन्ति तेषु ।’ भगवान् अवतार लेकर लीला करते हैं । उस लीलाको गा-गाकर भक्त मस्त होते रहते हैं । यह
बिना अवतारके नहीं हो सकता । भगवान्की चर्चा चलती है, कथा चलती है, लीला चलती है । यह सब अवतार होनेसे
ही हो सकता है । तो लोग गा-गाकर संसारसे तरते जाते हैं और तरते ही रहते हैं । भगवान् इस तत्त्वको जानते हैं
। इस वास्ते अवतार लेकर लीला करते हैं और संत-महात्मा भी इस वास्ते भगवच्चर्चा करते
हैं । तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम् । श्रवणमङ्गलं
श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥ जो आपकी कथामृतको कहते हैं, सुनते हैं, विचार करते हैं, वे ‘भूरिदाः’ बहुत देनेवाले हैं तो वे देनेवाले भी हैं और लेनेवाले
भी हैं । मानो सुननेवालोंको देते हैं और सुनकर लेते हैं । सुननेवालोंको लाभ होता है
तो कहनेवालोंको नहीं होता है क्या ? होता ही है । इस वास्ते
भगवान् अवतार लेकर लीला करते हैं, तो भक्तोंकी रक्षा क्या
है ?
भक्तोंका धन हैं भगवान् । उन भगवान्की लीला कहते, सुनते, विचार करते रहें‒यही वास्तवमें भक्तोंकी रक्षा है और इस वास्ते ही हनुमान्जीको
‘प्रभु चरित्र सुनिबेको रसिया’ कहा है । भगवान्का
चरित्र सुननेके लिये वे रसिया हैं, रसिया । वाल्मीकिरामायणमें आता है कि जब भगवान्
दिव्य साकेतलोक जाने लगे तो हनुमान्जीने कहा मैं साथ नहीं चलूँगा । जबतक आपकी कथा
भूमण्डलपर रहेगी, मैं भूमण्डलपर रहूँगा ।
जहाँ-जहाँ आपकी कथा होगी, वहाँ-वहाँ सुनूँगा । भगवान्को छोड़कर कथाका लोभ लगा उनको । भगवान्को देखनेसे
गरुड़जीको मोह हो गया । भगवान्को देखनेसे काकभुशुण्डिजीको मोह हो गया, भगवान्को देखनेसे नारदजीको मोह हो गया । भगवान्को देखनेसे सतीको मोह हो गया और
वह रामायण सुननेसे मिट गया । भगवान्को देखनेसे गरुड़जीको मोह हो गया और चरित्र सुननेसे
मोह दूर हो गया । यह तो जानते ही हैं आप ! तो भगवान्से बढ़कर भगवान्के चरित्र हैं । यही
भक्तोंकी रक्षा है कि इस चर्चाको करते रहें । अपने भाई लोग जो कि पारमार्थिक मार्गमें
चलना चाहते हैं, उनका विचार रहता है कि
अच्छे महात्माओंका संग करें । ऊँचे दर्जेके संत-पुरुष हों तो उनका हम संग करें । यह भाव रहता है और यह ठीक ही है उचित ही है ! परन्तु इसी अटकलको महात्मा पुरुष लगा लें अपने लिये तो वे अपनेसे ऊँचोंका संग करेंगे
। वे उनसे ऊँचोंका, भगवान्का ही संग करेंगे
। फिर हमारे साथ माथा-पच्ची कौन करेगा ! |