।। श्रीहरिः ।।

                      





आजकी शुभ तिथि–
  भाद्रपद कृष्ण दशमी, वि.सं.-२०७८, गुरुवार
                     एकादशी-व्रत कल है 
         भगवान्‌से सम्बन्ध


भगवान् अवतार लेते हैं । अवतार नाम है ‘उतरना’ । अवतार तो नीचे उतरनेको कहते हैं । तो भगवान् नीचे उतरते हैं, हम जहाँ हैं वहाँ । जैसे बालकको आप पढ़ाओगे तो आप भी ‘क’ ‘क’ कहोगे और हाथसे ‘क’ लिखोगे तो यह क्या हुआ ? आपका बालककी अवस्थामें अवतार हुआ । उस अवस्थामें न उतरें तो आप बालकको कैसे सिखायेंगे ? कैसे समझायेंगे ? अब उसको व्याकरणकी बात समझाने लगें तो बच्चा क्या समझेगा ? वहाँ तो ‘क’ कहते रहो । हाथसे लिखाते रहो कि ऐसा ‘क’ होता है तो उसके समकक्ष होकर सिखाते हैं । ऐसे भगवान् अवतार लेकर कहते हैं‒कैसे करो ? कि हम करते हैं जैसे करो । ‘रामादिवत् वर्तितव्यं न रावणादिवत्’ ऐसे करना चाहिये, ऐसे नहीं करना चाहिये । जैसे मैं अवतार लेकर लीला करता हूँ । ऐसे तुम करो और न करो तो सुनो बैठे-बैठे; क्योंकि ‘श्रवणमंगलम्’ भगवान्‌की कथा श्रवणमात्रसे भी मंगल देनेवाली है ।

निवृत्ततर्षैरुपगीयमानाद्    भवौषधाच्छ्रोत्रमनोऽभिरामात् ।

क उत्तमश्लोकगुणानुवादात्पुमान् विरज्येत विना पशुघ्नात् ॥

जिनकी तृष्णा दूर हो गयी है, ऐसे जो निवृत्ततर्ष हैं, उनकी कोई इच्छा नहीं, कोई कामना नहीं किंचिन्मात्र भी । वे तो रात-दिन गाते ही रहते हैं, करते ही रहते हैं । सनकादिक निर्लिप्त ही प्रकट हुए और चारों ही समान अवस्थावाले हैं, छोटी अवस्था-पाँच वर्षकी आयुवाले हैं । तीन श्रोता हो जाते हैं, एक वक्ता हो जाते हैं और भगवान्‌की कथा करते हैं । अब उनके क्या जानना बाकी रह गया ? ‘चरित सुनहिं तजि ध्यान’, ध्यानको छोड़ करके भगवान्‌के चरित्र सुनते हैं । ऐसे क्यों करते हैं ? कि भाई ! ‘इत्थं भूतगुणो हरिः’ भगवान् हैं ही ऐसे । भगवान् इतने विलक्षण हैं कि ‘आत्मारामगणाकर्षी’ नाम है भगवान्‌का । जो ‘आत्मारामगण’ हैं, जो परमात्मस्वरूपमें ही नित्य रमण करते हैं, वे भी आकृष्ट हो जाते हैं भगवान्‌के गुणोंमें, भगवान्‌की लीलामें । भगवान्‌के गुण सत्त्व, रज, तम नहीं हैं । ‘आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्थाः’ दोनों अर्थ हुए‒एक तो चिज्जडग्रन्थी-भेदन हो गयी और ‘निर्ग्रन्था-शास्त्रमस्मान्निवर्तन्ते’ जिससे ग्रन्थ भी निवृत्त हो जाते हैं फल दे करके । ग्रन्थ अब क्या देगा ? ग्रन्थ तो मुक्ति देगा । वे मुक्त हो गये । निर्ग्रन्था हैं तो भी ‘उरूक्रमे कुर्वन्ति अहैतुकीं भक्तिम्’, बिना स्वार्थके, बिना मतलबके भक्ति करते हैं । क्यों करते हैं बिना मतलब ? ‘इत्थं भूतगुणो हरिः’ भगवान् ऐसे ही हैं । अब करें क्या ? उस तरफ वे आकृष्ट हो जाते हैं । तो वे ऐसे गुण हैं, ऐसी उनकी लीला । जिनको ‘निवृत्ततर्ष’ कहते हैं वे भी गाते रहते हैं, वे भी लीला करते रहते हैं ।