।। श्रीहरिः ।।

     


आजकी शुभ तिथि–
   आश्विन कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०७८, शनिवार
                             
    जीव लौटकर क्यों आता है ?


कुछ लोग कहते हैं कि ममता छूटती नहीं । आपकी छोड़नेकी सच्ची नीयत हो जाय तो भगवान्‌ छुड़ा देंगे । उनको पुकारें कि हे नाथ ! मैं इन वस्तुओंको अपना मानना चाहता नहीं । तो भगवान्‌ कहेंगे कि बहुत ठीक है और ममता छूट जायगी । परन्तु हृदयसे छोड़नेकी नीयत हो तब । यदि छोड़ना चाहते ही नहीं, तो मरनेपर भी नहीं छूटेगी । भूत-प्रेत बनना पड़ेगा । वही पोशाक धारण किये उसी घरमें आता है, लोगोंको दीखता है । भूत-प्रेत बन जानेपर भी ममता छूटेगी नहीं । इसलिये आपने जो सांसारिक वस्तुओंमें ‘अपनापन’ कर लिया है, यह संसारमें लौटकर आनेका खास कारण है । यही बहुत बड़ी गलती है ।

यह सब संसार परमात्माका है और मान लिया अपना‒यह बेईमानी है, ईमानदारी नहीं है । भाइयो, बहनो, माताओ ! आप मानो तो सही । आप अपनी कही जानेवाली सब चीजोंको भगवान्‌की मानकर चलो तो वे सब भगवान्‌का प्रसाद हो जायँगी । फिर मस्त हो जाओ कि हम ठाकुरजीके प्रसाद पाते हैं । हमारे समान कौन बड़भागी है ? चीज चली जाय तो ठाकुरजीकी चीज चली गयी । अपनी मानेंगे ही नहीं । हाँ, रक्षा ठीक तरहसे करेंगे । अब बोलो मरनेमें भी मौज रहेगी कि नहीं । कबीरदासजी कहते हैं‒

सब जग डरपे मरण से, मेरे मरण आनन्द ।

कब मरिये कब भेंटिये,   पूरण परमानन्द ॥

‘मेरे मरनेमें आनन्द है, क्योंकि अपने प्यारे प्रभुसे मिलेंगे ।’ अपने घर जायँगे । भगवान्‌ हमारा घर है, देश है, परिवार है । हमारे वे हैं, हम उन्हींके अंश हैं । उन्हींकी जातिके हैं । उन्हींके सम्बन्धी हैं । आप और हम‒सब भगवान्‌के हैं । यह देश, अपना देश नहीं है‒

इण आँगणि‒ये हे सखि, हम खेलण आये ।

कई खेल्या कई खेल सी, कई खेल सिधाये ॥

यह तो खेलनेका एक रंगमंच है, स्टेज है । इसपर खेलना है, बस । खेलकी चीजोंको ‘अपना’ मान लेते हैं, यही गलती है ।

आप लोग कहते हैं कि अशान्ति है, दुःख है, सन्ताप है‒क्या करें ? भैया ! आपने भगवान्‌की वस्तुको अपना मानकर जो बेईमानी की है, उसका दुःख तो भोगना पड़ेगा ही । इन चीजोंको अपना माना है, इस वास्ते अशान्ति है । जहाँ ‘अपनापन’ छोड़ा वहीं शान्ति‒

निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥

(गीता२/७१)

बहनो, माताओ ! आप घरमें रहते हुए कहो कि आजसे काम मैं करूँगी । आराम सबको दो । आपकी सास, ननद, देवरानी, जेठानी जो भी घरके सदस्य हों‒उनका काम आप करो । सासको चाहिये कि बहूसे कहे‒‘बेटा ठहरो, काम मैं करूँगी ।’ बहू कहे‒‘राम ! राम !! ऐसा कैसे होगा ? हमारे रहते, आप बूढ़े-बड़ेरे काम करेंगे ?’ तो सास बोले‒‘बेटा ! मैं जीउँ, तबतक तो मुझे करना ही चाहिये ।’ बहू कहे‒‘माजी ! आप काम करें और मैं बैठी रहूँ ? यह कैसे हो सकता है ? आप चली जायँगी तो हम किसको काम करके दिखायेंगे ? इसलिये काम तो हम करेंगी ।’ इस तरह काम करनेके लिये लड़ाई हो जाय घरोंमें । देवरानी कहे कि मैं करूँगी । जेठाणी कहे कि मैं करूँगी । सुख, आराम, प्रशंसा उनके लिये और घरका काम, परिश्रम अपने लिये । फिर संसारमें आना नहीं होगा । अपना कुछ माना नहीं और सबकी सेवा कर दी । अब क्यों आयेंगे यहाँ ?