घरमें काम करो ।
सेवा करो । सुख पहुँचाओ अभिमान मत करो । ममता मत करो । ममता आपकी चलेगी नहीं ।
आजसे सौ वर्ष पहले इन कुटुम्बियों और इन घरोंपर अपनी ममता थी क्या ? सौ वर्ष बाद
रहेगी ? नहीं रहेगी । अभी भी निरन्तर मिट रही है । जितने दिन बीत गये, उतनी सब
चीजें अलग हो गयीं । उमर पूरी हो जायगी तो राम-नाम सत्य है‒बोल जायगी । तो चीजें
आपकी कैसे हुईं ? पहले आपकी नहीं, पीछे आपकी नहीं, तो बीचमें आपकी कैसे हुईं ? हर
पल आपसे बिछुड़ रही है । इन वस्तुओंके द्वारा सबकी सेवा
करो । आदर करो । सबको मान दो । घरमें रहते हुए निहाल हो जाओ । जो संसारमें
अपनापन (वासना) करेगा तो वह लौटकर नहीं आयेगा, तो कहाँ जायगा‒ वासना यस्य यत्र
स्यात् स तं स्वप्नेषु पश्यति । स्वप्नमरणे ज्ञेयं
वासना तू वपुर्नृणाम् ॥ जिसकी
जहाँ वासना है, स्वप्नमें भी उसको वही याद आता है । स्वप्नकी तरह, मरनेपर भी वही
याद आता है; क्योंकि वासना ही उसका शरीर है । किसीमें वासना
ही नहीं रही तो यह (जीव) लौटकर संसारमें क्यों आयेगा ? अगर वासना रह गयी‒थोड़ी
धनमें, थोड़ी घरमें, थोड़ी पुत्रोंमें, तो यहाँ वापस आना पड़ेगा । यदि हमारा सम्बन्ध यहाँ किसीसे नहीं है, केवल भगवान्के साथ है
। जीते रहें तो भगवान्के साथ और मरें तो भगवान्के साथ । तो हम भगवान्के पास ही
जावेंगे । फिर यहाँ नहीं आना पड़ेगा ।
एक राजकुँवर थे ।
स्कूलमें पढ़नेके लिये जाते थे । वहाँ प्रजाके बालक भी पढ़ने जाते थे । उनमेंसे
पाँच-सात बालक राजकुँवरके मित्र हो गये । वे मित्र बोले‒‘आप राजकुँवर हो, राजगद्दीके
मालिक हो । आज आप प्रेम और स्नेह करते हो, लेकिन राजगद्दी मिलनेपर ऐसा ही प्रेम निभायेंगे, तब हम समझेंगे कि मित्रता है, नहीं तो
क्या है ?’ राजकुँवर बोले कि अच्छी बात है । समय बीतता गया । सब बड़े हो गये
। राजकुँवरको गद्दी मिल गयी । एक-दो वर्षमें राज्य अच्छी प्रकार जम गया ।
राजकुँवरने अपने मित्रोंमेंसे एकको बुलाया और कहा कि तुम्हें याद है कि तुमने कहा
था‒‘राजा बननेके बाद मित्रता निबाहो, तब समझें ।’ अब तुम्हें तीन दिनके लिये राज्य
दिया जाता है । आप राजगद्दीपर बैठो और राज्य करो ।’ वह बोला‒‘अन्नदाता ! वह तो
बचपनकी बात थी । मैं राज्य नहीं चाहता ।’ बहुत आग्रह करनेपर उस मित्रने तीन दिनके
लिये राज्य स्वीकार कर लिया । |