।। श्रीहरिः ।।

       


आजकी शुभ तिथि–
   आश्विन कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०७८, सोमवार
                             
    जीव लौटकर क्यों आता है ?


वह मित्र राजगद्दीपर बैठा और उस दिन खान-पान ऐश-आराममें मगन हो गया । दूसरे दिन सैर-सपाटा आदिमें लगा रहा । रात हुई तो बोला‒‘हम तो राजमहलमें जायँगे ।’ सब बड़ी मुश्किलमें पड़ गये । रानी बड़ी पतिव्रता थी । वह मित्र तो अड़ गया कि सब कुछ मेरा है, मैं राजा हूँ तो रानी भी मेरी है । रानीने अपने कुलगुरु ब्राह्मण देवतासे पुछवाया कि अब मैं क्या करूँ ? गुरुजी महाराजने कहा‒बेटी ! तुम चिन्ता मत करो, हम सब ठीक कर देंगे । गुरुजीने उस तीन दिनके लिये राजा बने मित्रसे पूछा कि आप महलोंमें जाना चाहते हैं तो राजाकी भाँती जाना होगा । इसलिये आपका ठीक तरहसे श्रृंगार होगा । उन्होंने भृत्योंको बुलाया और आज्ञा दी‒महाराजके महलोंमें जानेकी तैयारी करो, श्रृंगार करो । नाईको बुलाया और कहा कि महाराजकी हजामत करो ठीक ढंगसे । ३-४ घण्टे हो गये, तब वह राजा बोला‒ऐसे क्या देरी लगाते हो ? तो नाई बोला‒महाराज ! राजाओंका मामला है, साधारण आदमीकी तरह हजामत कैसे होगी ? हजामतमें लम्बी कर दी अर्थात्‌ बहुत देर लगा दी । इसके बाद पोशाक पहनानेवाला आदमी आया । उसने बहुत देर पोशाक पहनानेमें लगा दी । उसके बाद इत्र-तेल-फुलेल आदि लगानेवाला आया । उसने देर लगायी । इस प्रकार श्रृंगार-श्रृंगारमें ही रात बीत गयी । अब सुबह हो गयी । अन्तिम दिन था । समय पूरा हो गया और राजगद्दी वापस राजासाहबको मिल गयी । राजा साहबने अब अपने दूसरे मित्रको बुलाया और आग्रहपूर्वक तीन दिनके लिये राज्य दे दिया और बोले कि मैं, मेरी स्त्री, मेरा घर‒ये सब तो मेरे हैं । मैं भी आपकी प्रजा हूँ । बाकी सारा राज्य आपका है । वह मित्र तीन दिनके लिये राजा बन गया ।

राज्य मिलते ही उस मित्रने पूछा कि मेरा कितना अधिकार है ? मन्त्रीने जवाब दिया‒‘महाराज ! सारी फ़ौज, पलटन, खजाना और इतनी पृथ्वीपर आपका राज्य है ।’ उसने दस-बीस अधिकारीयोंको बुलाकर कहा कि हमारे राज्यमें कहाँ-कहाँ, क्या-क्या चीजकी कमी है, किसके क्या-क्या तकलीफें हैं‒पता लगाकर मुझे बताओ । उन्होंने आकर खबर दी‒फलाँ-फलाँ गाँवमें पानीकी तकलीफ है, कुआँ नहीं है, धर्मशाला नहीं है, पाठशाला नहीं है । उस राजाने हुक्म दिया कि सब गाँवोंमें जो कमी है, तीन दिनमें पूरी हो जानी चाहिये । खजांचीको कह दिया जाय कि मकान, धर्मशाला, पाठशाला, कुँए आदि बनानेमें जो भी खर्च हो, वह तुरन्त दिया जाय । राजाका हुक्म होते ही अनेक लोग़ राजाज्ञाके पालनमें लग गये । तीन दिन पूरे होते-होते विभिन्न स्थानोंसे समाचार आने लगे कि इतना-इतना काम हो गया है और इतना काम बाकी रहा है । जल्दी पूरा करनेका आदेश देकर, उस मित्रने राज्य वापस राजाको दे दिया । राजा बड़े प्रसन्न हुए और बोले कि हम तुम्हें जाने नहीं देंगे । हमारा मन्त्री बनायेंगे । हमें राज्य मिला, लेकिन प्रजाका इतना ध्यान नहीं रखा, जितना आपने तीन दिनमें रखा है । अब राजा तो नाम-मात्रके रहे और वह मित्र सदाके लिये, उनका विश्वासपात्र मन्त्री बन गया ।

इस प्रकार हमें बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था‒ऐसे तीन दिनके लिये भगवान्‌की तरफसे राज्य मिला है । अब जो रूपया-संग्रह और भोग भोगनेमें लगे हैं, उनकी तो हजामत हो रही है और जो दूसरे मित्रकी तरह सेवा कर रहे हैं, उनको भगवान्‌ कहते हैं‒

मैं तो हूँ भगतन को दास, भगत मेरे मुकुट मणि ॥

तो भाई हमारे पास जो भी धन, सम्पत्ति, वैभव आदि है, उसके द्वारा सबका प्रबन्ध करो, सबकी सेवा करो । यह राज्य तीन दिनके लिये मिला है । अब निर्णय अपनेको करना है कि हजामतमें समय खोना है या भगवान्‌का विश्वासपात्र बनना है । लक्ष्मीजी हमारी माँ हैं, भगवान्‌ हमारे पिता हैं । निर्वाहके लिये लक्ष्मी माँसे ले लो; लेकिन लक्ष्मीजीको भोगना चाहते हैं, स्त्री बनाना चाहते हैं‒यह पाप है । वह हमारी पूजनीया माँ है । सेवाभाव होगा तो माँ भी खुश होंगी और पिताजी भी खुश होंगे । फिर हमें संसारमें लौटनेकी आवश्यकता नहीं रहेगी । पिताजीके धाममें हमारा सदा निवास होगा । हम वहाँके रहनेवाले हैं, यहाँ क्यों आयेंगे ? हमारा यह लोक है ही नहीं; यह तो जीवलोक है । हमारा लोक तो हमारे प्रभुका धाम है । हम तो उसी लोकके हैं । कबीर साहेब कहते हैं‒

मैं पूरबियो पूरब देश रो, म्हारी बोली लखै न कोय ।

म्हारी   बोली  जो   लखै,    धर   पूरबलो   होय ॥

मैं तो पूरब देशका, मेरी भाषा यहाँ कोई नहीं समझता । यहाँ सब पश्चिम देशके लोग़ हैं । मेरी बोली वही समझ सकता है, जो ठेठ पूरब देशका रहनेवाला हो ।

मैं भगवान्‌का हूँ । केवल भगवान्‌ ही मेरे हैं । सब चीजें भगवान्‌की हैं । मेरा कुछ नहीं है । ये बातें जो ठीक-ठीक समझ लेता है, उसको मरनेके बाद यहाँ लौटकर नहीं आना पड़ता; लेकिन जो संसारमें ममता रखता है और मर जाता है, तो उसे लौटना ही पड़ता है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘सत्संगकी विलक्षणता’ पुस्तकसे