अपना अवगुण अपनेको दीखने लग जाय, यह बहुत बढ़िया
बात है । यह जितना स्पष्ट दिखेगा, उतना ही उस अवगुणके साथ सम्बन्ध-विच्छेद होगा‒यह
एक बड़े तत्त्वकी बात है । जब साधकको अपनेमें दोष दिखायी देता है, तब वह उससे घबराता
है और दुःखी होता है कि क्या करूँ, मैं साधक कहलाता हूँ और दशा क्या है मेरी ! तो
यह दुःखी होना अच्छा ही है । परन्तु दोष मेरेमें हैं‒ऐसा मानना अच्छा नहीं । ध्यान दें, साधकके लिये बहुत बढ़िया बात
है । जैसे आँखमें लगा हुआ अंजन आँखको नहीं दीखता, पर दूसरी सब चीजें दीखती
हैं, ऐसे ही जबतक अवगुण अपने भीतर रहता है, तबतक वह
स्पष्ट नहीं दीखता और जब अवगुण दीखने लगे, तब समझना चाहिये कि अब अवगुण मुझसे कुछ दूर हुआ है । अगर दूर न होता, तो दीखता कैसे ? जितना
स्पष्ट, साफ दीखे, उतना ही वह अपनेसे दूर जा रहा है । अत्यन्त दूरकी वस्तु और
अत्यन्त नजदीककी वस्तु‒दोनों ही आँखोंसे नहीं दिखतीं । इसलिये अवगुण दीखनेपर एक
प्रसन्नता आनी चाहिये कि अब दोष मेरेमें नहीं है; अब वह निकल रहा है, मिट रहा है ।
भूल तभी होती है, जब साधक उसे अपनेमें मान लेता है । अपनेमें
दोषको मान लेना बहुत बड़ी गलती है । अपनेमें माननेसे दोषको सत्ता मिलती है, जबकि दोषकी
स्वतन्त्र सत्ता है नहीं । आपकी अपनी स्वतन्त्र सत्ता है । दोषको
अपनेमें माननेसे वह सत्ता दोषको मिलती रहती है । इससे वह दोष जीता ही रहता
है, मरता नहीं; क्योंकि उसे आपका बल मिल गया । दोष अपनेमें नहीं है‒इसकी एक पहचान तो यह हो गयी
कि वह दीखने लग गया । दूसरी पहचान यह है कि यदि अपनेमें दोष हो, तो उसे सब समयमें
दीखते रहना चाहिये । जबतक
‘मैं हूँ’ यह ज्ञान रहता है, तबतक उसके साथ-साथ दोषके रहनेका ज्ञान होता है क्या ?
यह हरदम नहीं रहता । वह आता और जाता है । तो ऐसा आगन्तुक दोष अपनेमें कैसे हो सकता
है ! मैं बार-बार आप लोगोंसे कहता हूँ कि अपनेमें दोषको
मानना बहुत बड़ी गलती है । इतनी बड़ी गलती है कि मानो दोषको निमन्त्रण देकर बुलाते
हैं कि हमारे यहाँसे कहीं चला न जाय ! इस प्रकार आप दोषको आग्रहपूर्वक निमन्त्रण
देकर रखते हैं । मूलमें दोष अपनेमें नहीं है; क्योंकि‒ ईस्वर अंस जीव
अबिनाशी । चेतन अमल सहज सुखरासी ॥ (मानस ७/११७/१) स्वयं ईश्वरका अंश, सदा रहनेवाला, चेतन, ज्ञानस्वरूप है ।
यह अमल है अर्थात् इसमें मल नहीं है और सहज सुखराशि है । सहज-स्वाभाविक ही
सुखराशि होनेपर भी जो यह दूसरेसे (संयोगजन्य) सुख चाहता है, यह गलती करता है । जब
दूसरेकी तरफसे वृत्ति हटकर अपने स्वरूपमें स्थिति होगी, तब उस सहज सुखका अनुभव
होगा । ना सुख काजी पंडिताँ ना सुख भूप भयाँ ।
सुख सहजाँ ही आवसी तृष्णा रोग गयाँ ॥ |