दूसरेसे सुखकी इच्छा, लोलुपताके मिटनेसे ही सहज सुख प्रकट
होगा, और सहज सुखसे मन स्थिर होगा । गोस्वामीजी महाराज कहते हैं‒ निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा । (मानस ७/९०/४) जबतक निज सुख नहीं मिलता, तबतक मन स्थिर नहीं होगा । जब निज
सुख मिल जायगा‒अपने पासमें ही सुख मिल जायगा, तब वह मन कहीं जायगा ही नहीं । इन्द्रियाँ भी अपने-आप वशमें हो जायँगी, स्थिर हो
जायँगी । ये दोष पुष्ट होते हैं, एक तो अपनेमें दोष
माननेसे, एक दूसरेका दोष देखनेसे और दूसरेके दुःखकी परवाह न करनेसे । ध्यान दे, दूसरेके दुःखकी परवाह न करनेसे अपनेमें दोष
स्थित होता है, कायम होता है । हर समय सावधान रहें कि
कहीं मेरे द्वारा दूसरेको दुःख तो नहीं हो रहा है ? मेरे बोलनेसे, चलनेसे, बैठनेसे
किसीको दुःख या विक्षेप तो नहीं हो रहा है ? मैं कोई क्रिया करता हूँ, तो उससे
दूसरेको दुःख तो नहीं हो रहा है ? गीतामें भगवान्ने कहा है‒ लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः । छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥ (५/२५) सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रत हुए पुरुष
निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त होते हैं । ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥ (गीता १२/४) सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रत हुए पुरुष मुझे ही प्राप्त
होते हैं । तो साधक निर्गुण-तत्त्वकी प्राप्ति चाहे अथवा सगुण तत्त्वकी‒उसके लिये
किसीको दुःख न देनेकी वृत्तिकी बड़ी भारी आवश्यकता है । दूसरेको कष्ट, दुःख
देनेवालेकी तत्त्वमें स्थिति नहीं होती । सन्त-महात्माओंके
सिद्धान्त हैं, गीताके सिद्धान्त हैं, भगवान्के सिद्धान्त हैं, उनके विरुद्ध तो
करना ही नहीं है, मृत्यु भले ही हो जाय । अन्यथा सिद्धान्तके विरुद्ध चलनेसे महान्
अपराध होता है । परमार्थ-पत्रावली पुस्तकमें मैंने एक दिन एक पत्र देखा था ।
बहुत सुन्दर पत्र है वह । वह पत्र सेठजीने भाईजीको लिखा था । बहुत पुराना पत्र है
। उसमें लिखा है कि जैसे सुनारके पास सोना गलानेकी कुटाली होती है, उसमें सोनेको
गलाकर उसे तपाते हैं तो सोनेमें जो मैल होती है, वह तो बहुत जल्दी जल जाती है,
परन्तु उसमें जो विजातीय धातु होती है, वह जल्दी नहीं जलती । ऐसे ही अन्तःकरणमें
जो कूड़ा-करकट या मैल है, वह तो जल जाता है, परन्तु जो विजातीय धातु है‒जैसे, दूसरेको दुःख देना, दूसरेका दोष देखना, शास्त्रों और
सन्त-महात्माओंके विरुद्ध चलना आदि, इसका जलना कठिन हो जायगा । साधनरूपी आग और
सत्संगरूपी फूँक हरदम लगती रहेगी, तब तो वह जलता-जलता साफ हो जायगा, स्वच्छ हो
जायगा । स्वरूप तो आपका स्वच्छ, शुद्ध है ही । दूसरोंका अहित करनेवालेका बड़ा भारी नुकसान होता है । दूसरोंका हित करनेवालेको गीताने ‘परम योगी’ माना है‒ आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥ (६/३२)
तात्पर्य यह है कि जैसे कोई हमारी चीज ले जाय तो हमें बुरा
लगता है, हमारेमें दोष देखता है तो बुरा लगता है, हमारी निन्दा करता है तो बुरा
लगता है, हमारा तिरस्कार करता है तो बुरा लगता है, हमारे मनके विरुद्ध करे तो बुरा
लगता है‒इस प्रकार ‘आत्मौपम्येन’ अपने शरीरकी उपमा देकर सोचे कि दूसरेका ऐसा बर्ताव मुझे बुरा
लगता है, तो वैसा बर्ताव हम किसीसे नहीं करेंगे । |