अपने शरीरकी उपमा देकर सोचे कि दूसरेका ऐसा
बर्ताव मुझे बुरा लगता है, तो वैसा बर्ताव हम किसीसे नहीं करेंगे । भोगी आदमी तो इसका यह अर्थ लेता है कि जिससे अपनेको सुख हो,
वह काम करना है और जिससे अपनेको दुःख हो वह काम नहीं करना है एवं बुरा बर्ताव
करनेवालेको खत्म करना है, हटाना है । परन्तु जो साधक
होता है, उसमें यह सावधानी होती है कि ये जो बर्ताव मुझे बुरा लगता है, उसका अर्थ
यह है कि ऐसा बर्ताव मैं किसीके साथ न करूँ और जो दुःख आता है, वह मेरी उन्नतिके
लिये आता है । दूसरेका आचरण हमें चुभता है, तो ऐसा आचरण दूसरोंको भी चुभता
है‒पक्की बात है । जैसे शरीरमें कहीं भी होनेवाला दुःख हमें नहीं सुहाता, वैसे ही
दूसरोंका दुःख हमें नहीं सुहावे । यदि हमारे शरीर, मन,
वाणी, भाव आदिसे किसी भी जीवको दुःख होता है, तो जल्दी साधनकी सिद्धि नहीं होती ।
जैसे अपने शरीरमें होनेवाला सुख हमें सुहाता है, वैसे ही दूसरोंको होनेवाला सुख भी
हमें सुहाना चाहिये । मनुष्यमें यह बड़ी कमजोरी है कि वह भजन, ध्यान आदिको तो साधन
मानता है, पर दूसरोंके दुःखकी परवाह नहीं करता । यदि यही
बात रहेगी तो वर्षोंतक सत्संग, साधन करनेपर भी सुधार नहीं होगा । इसलिये कम-से-कम दूसरेको दुःख न
दें । सेवा करो तो अच्छी बात, सेवा न करो तो इतनी हानि नहीं, परन्तु
दुःख देनेसे बड़ी भारी हानि होती है । साधक इससे जितना बचेगा, उतनी ही अपने सुखकी
कामना दूर होगी । तो सुखभोगकी वृत्ति तब दूर होगी, जब दूसरेका दुःख अपनेको चुभने
लगेगा, दूसरेके दुःखको दूर करना हमारा सुख हो जायगा और दूसरेका दुःख हमारा दुःख हो
जायगा । जैसे अपना दुःख दूर करनेके लिये मनुष्यकी स्वतः चेष्टा होती है, वैसे ही
दूसरेका दुःख दूर करनेकी स्वतः चेष्टा हो जाय, तो विषयेन्द्रिय-संयोगके सुखभोगकी
रूचि मिट जायगी । और जबतक दूसरेके दुःखकी परवाह नहीं करते और अपना सुख लेते हैं,
तबतक अपने सुखकी वृत्ति मिटती नहीं । कोई कहे कि हम दुःख नहीं देते, फिर दूसरेका
दुःख देखनेकी क्या जरूरत है ? तो अपनेमें जो सुख-बुद्धि
है, इसे मिटानेके लिये ‘दूसरेका दुःख कैसे दूर हो’ यह चिन्तन होगा, अपने सुखभोगकी
रूचि मिट जायगी । इसलिये सन्तोंके लक्षणोंमें लिखा है‒ पर दुख दुख सुख सुख देखे पर । (मानस ७/३८/१) सुखभोगमें भी दो चीजें हैं, जिसे सन्तोंने कहीं कामिनी
नामसे कहीं दमड़ी और चमड़ी नामसे कहा है । पैसोंकी आसक्ति दमड़ीकी और स्त्रीकी आसक्ति
चमड़ीकी । तो ये दोनों बहुत खराब हैं । तभी कहा कि‒ माधोजी से मिलना कैसे होय । सबल बैरी बसे घट भीतर, कनक कामिनी दोय ॥ इन दोनोंको गीताने भोग और ऐश्वर्य
नामसे कहा है‒ भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् । व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥ (२/४४) भोग शब्दसे स्त्री और ऐश्वर्य शब्दसे पैसोंका संग्रह लेना
चाहिये । जिसकी इन दोमें आसक्ति होती है, उसकी परमात्मामें निश्चयात्मिका बुद्धि
नहीं होती कि परमात्माको प्राप्त करना है । इनकी आसक्ति तब दूर होती है, जब
दूसरेके हितका भाव हो जाय । आजकल हमारे देशमें इसकी बहुत अधिक आवश्यकता है । जैसे
बीकानेरमें कभी मतीरा न हो या कम पैदा हो, तो बहुत मनमें आती है कि मतीरा नहीं हुआ
! क्योंकि यहाँ वह होता है । जहाँ मतीरा पैदा होता ही नहीं, वहाँ मनमें नहीं आता ।
ऐसे ही हमारे देशमें साधुओं और गृहस्थोंमें उपकारी आदमी बहुत हुए हैं । आज उनकी
बड़ी भारी कमी होनेसे देशको उपकारी आदमियोंकी भूख लगी है । हमारे कारण किसीको दुःख न हो‒ऐसा विशेष ध्यान
रखनेसे सुखभोगकी रूचि मिट जायगी, जिसके मिटनेसे हमारी दोषयुक्त वृत्तियाँ सब मिट
जायँगी । हम
वृत्तियाेंकी तरफ ही खयाल करते हैं, उसके कारणकी तरफ नहीं । यदि कारणकी खोज करके
उसे मिटा दें, तो सब दोष मिट जायँ । नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे |