का बरषा सब कृषी
सुखानें । समय चुकें पुनि का पछितानें ॥ (मानस, बाल॰ २६१/३) अभी समय है सभी तरहसे मन हटा लो । सब
सम्बन्ध टूटनेवाले हैं । कोई भी सम्बन्ध रहनेवाला नहीं है । अगर आप छोड़ दोगे तो
निहाल हो जाओगे । छूटनेवालेको ही छोड़ना है, इसमें नयी
बात क्या करनी है ? छूटनेवालेसे मनसे दूर हो जाओ । दूर होनेका मतलब है‒उसकी सेवा
करो, पर उससे चाहना मत करो । इससे घरवाले भी नाराज नहीं होंगे; क्योंकि वे सेवा ही
चाहते हैं । उनसे सेवा लो मत, तो वे और ज्यादा राजी होंगे । केवल सेवा-ही-सेवा करें तो दुनिया राजी हो जाय, आप निहाल हो
जायँ और भगवान् मिल जायँ । दुनियासे चाहना रखोगे तो वह नाराज हो जायगी । वह
आपको देगी भी, तो दुःख पाकर देगी कि क्या करें, आफत आ गयी ! परन्तु चाह नहीं रखोगे
तो दुनिया गरज करके देगी । जो वास्तवमें भीतरसे चाहरहित
हैं, उन सन्तोंकी सेवा करती है दुनिया । सेवा करनेवाले कहते हैं कि महाराजने मेरी
चीज स्वीकार कर ली, आज तो हम निहाल हो गये । लेनेवालेके हृदयमें गरज नहीं
होगी तो देनेवाला देकर निहाल हो जायगा । परन्तु यदि आपके हृदयमें गरज होगी तो
दूसरेको देनेपर भी वह राजी नहीं होगा । वह उलटे सोचेगा कि यह ठग है, देता है तो
पता नहीं भीतर क्या कूड़ा-करकट भरा पड़ा है ! इसलिये हृदयमें संसारके प्रति उदार भाव
रखो । संसारसे मिली हुई चीज बिलकुल संसारकी है । शरीर माँ-बापसे
मिला है, विद्या गुरुजनोंसे मिली है । हमने संसारसे लिया-ही-लिया है । अब तो कृपा
करके देना शुरू करो । देना सीखो तो सही ! देनेसे घाटा नहीं पड़ेगा । केवल भाव
उदारताका बन जाय । जैसे शिकारी देखता है कि मेरी बन्दूकके सामने शिकार आ जाय, ऐसे
ही आप देखते हैं कि कोई मेरे सामने आ जाय, मेरे कब्जेमें आ जाय तो किसी तरहसे उससे
ले लूँ ! दशा तो ऐसी है और कहते हैं कि लाभ
नहीं हुआ । लाभ क्या होगा, उलटे पतन होगा ! खर्चा जितना आज करते हो, उतना
ही करो, ज्यादा खर्चा मत करो, पर भाव बिलकुल बदल दो कि हमें लेना ही नहीं है,
देना-ही-देना है । हमें तो सेवा करनी है । सुगमतासे
जितना खर्च कर सको, उतना खर्च करना है, पर ‘हमें किसीसे कुछ नहीं लेना है’, यह भाव
बना लो । फिर देखो, जीवन सुधरता है कि नहीं, जीवन निर्मल बन जायगा । लोग़ राजी हो
जायँगे । भगवान् राजी हो जायँगे । आप प्रसन्न हो जाओगे, मस्त हो जाओगे । सेवा करनेवाला कभी दुःखी नहीं होता । लेनेवाला सदा दुःखी होता है । उससे मिले तो भी वह राजी नहीं होगा कि थोड़ा मिला है ! ज्यादा मिले तो उसको अभिमान आ जायगा । दुःख और आसुरी-सम्पत्ति उसके पास रहेगी; क्योंकि जड़ पदार्थ लेनेकी इच्छा है । इसलिये कहा है‒‘देनेको टुकड़ा भला, लेनेको हरि नाम ।’ एक साधुको मैंने देखा । एकान्तमें बैठकर नाम-जप कर रहे थे और आँखोंसे टप-टप आँसू बह रहे थे । मकानमे छोटी खिड़की थी, वह भी बन्द कर दी थी, जिससे न तो उनपर दूसरेकी दृष्टि पड़े और न उनकी दृष्टि दूसरेपर पड़े । रातमें उनको नींद नहीं आती थी । इस तरह लगनपूर्वक कोई नाम-जप करे तो उसको लाभ क्यों नहीं होगा ? आप करके देखो । भूख तो पेटमें हैं, पर हलवा पीठपर बाँध दिया और कहते हैं कि तृप्ति नहीं हुई ! उसको खाकर देखो कि तृप्ति होती है या नहीं । |