तेरे भावैं जो करौ,
भलौ बुरौ संसार । ‘नारायण’ तू बैठिके, अपनौ भुवन बुहार ॥ ‒इस तरह अनन्यभावसे नाम-जपमें लग जाओ । गृहस्थमें रहते हुए
सेवा करो । बहनों-माताओंको चाहिये कि वे आपसमें सेवा करें । चाहे देवरानी हो या
जेठाणी, सास हो या ननद, चाहे बहू ही हो, उसकी सेवा करो । जैसे कोई पुजारी सेवा
करनेके लिये बाजारसे भगवान्की मूर्ति लाता है तो वह यह नहीं सोचता कि इस मूर्तिसे
घरका काम-धन्धा करायेंगे । ऐसे ही बेटाका विवाह किया है तो एक मूर्ति आयी है, अब
उसकी सेवा करनी है । साधुओंको तो मूर्ति कहते ही हैं; जैसे पूछते हैं‒कितनी मूर्ति
है ? मतलब यह है कि इन मूर्तियोंकी सेवा करनी है, सेवाके सिवाय ये कुछ कामकी नहीं
! कोई जन्म गया तो ठाकुरजीके यहाँसे आया है, उसकी सेवा करो । सेवा करनेके लिये ही आपका सम्बन्ध है । मेला महोत्सवोंमें सेवा-समितिवाले जाते हैं । कोई बीमार हो
जाय तो वे उसको कैम्पमें लाते हैं, दवाई देते हैं, उसकी सेवा करते हैं और यदि वह मर जाय तो जला देते हैं । अब रोये कौन
? ऐसे ही आप सबके साथ केवल सेवाका सम्बन्ध रखो तो आपका
रोना बन्द हो जाय, चिन्ता बन्द हो जाय, शोक बन्द हो जाय । सबको सुख-आराम दो, सबका
मान-आदर करो और परिश्रम खुद करो । आपका गृहस्थ सुखदायी हो जायगा । अगर सुख
देने-ही-देनेकी इच्छा रहे तो सुख हो जायगा और लेने-ही-लेनेकी इच्छा रहे सुख कम हो
जायगा । आज रुपये कम क्यों हो गये ? संख्या तो घटी नहीं, फिर कम कैसे हो गये ?
जिसके पास रुपये आये, उसीने दबा लिये, इसलिये रुपये कम हो गये । कुछ वर्षों पहले रेजगारी (खुले पैसे) बहुत कम हो गयी
थी । कारण कि एक-एक आदमीके पास बीस, पचास, सौ-सौ रुपयोंकी रेजगारी इकठ्ठी
की हुई होनेसे बाजारमें कहाँसे मिले ? जिसके हाथ जितनी लगी, इकठ्ठी कर ली । ऐसे ही अभी जो सुख मिलता नहीं है, उसका कारण यह है कि सभी सुख
लेनेमें लगे हुए हैं, खाऊँ-खाऊँ कर रहे हैं । अगर सब एक-दूसरेको सुख देने लग जायँ
तो सुख बहुत हो जायगा । घरमें रहते हुए घरके सब प्राणियोंकी सेवा करो । छोटे, बड़े,
समान अवस्थावाले‒सबको सुख-आराम कैसे पहुँचे ? उनका आदर कैसे हो ? यह भाव हरदम बना
रहे । कई माताएँ सेवा करके फिर कहती है कि मैं इतनी सेवा करती हूँ, मेरा सुख तो
गया धूलमें ! सुख धूलमें गया तो बहुत अच्छी बात है, खेती हो जायगी ! धूलमें बीज
मिल जाय तो खेती हो जाती है । आप सेवा करते हैं, पर कोई
आपका गुण नहीं गाता, आशीष नहीं देता तो यह बहुत ही बढ़िया चीज है । आपकी सेवा जमा
हो जायगी । दूसरे वाह-वाह करेंगे तो आपकी सेवा खत्म (खर्च) हो जायगी । कुछ पानेकी
इच्छासे सेवा करोगे तो सेवाकी बिक्री हो जायगी ।
गृहस्थाश्रम उद्धार करनेके लिये है, फँसनेके लिये नहीं । सेवा करना उद्धारके लिये हैं और सेवा लेना फँसनेके लिये है । आप चाहते हो कि सब घरवाले मेरे
अनुकूल बन जायँ तो यह पतनका, फँसनेका बढ़िया रास्ता है । जलमें जाकर
दोनों हाथोंसे जल लोगे तो एकदम भीतर चले जाओगे, डूब जाओगे । परन्तु दोनों हाथोंसे,
लातोंसे जलको धक्का दोगे तो तैरकर पार हो जाओगे । ऐसे ही इस
संसार-समुद्रमें लेनेकी इच्छा करोगे तो डूब जाओगे और देनेकी इच्छा करोगे तो पार हो
जाओगे । हम सब यहाँ लेनेके लिये नहीं आये हैं, सेवा करनेके लिये आये हैं ।
इसलिये गृहस्थाश्रममें रहते हुए
सबकी सेवा करो, सबका हित करो । प्राणिमात्रके
हितमें जिनकी प्रीति हो जाती है, वे भगवान्को प्राप्त हो जाते हैं‒‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥’ (गीता १२/४) ।
नहीं तो बैठकर संसारके झुनझुनेसे खेलो ! उससे क्या मिलेगा ? माँका प्यार, माँका
दूध तो तब मिलेगा, जब आप झुनझुनेको, सीटी, पी-पीको फेंक दोगे, माँके बिना रह नहीं
सकोगे । |