।। श्रीहरिः ।।

                   


आजकी शुभ तिथि–
  आश्विन शुक्ल एकादशी, वि.सं.-२०७८,  शनिवार
                             

नामजप और सेवासे भगवत्प्राप्ति


मनुष्यको भगवान्‌ने मध्यलोकमें बनाया है, जिससे यह ऊँचें लोंकोंकी भी सेवा करे, नीचेके लोंकोंकी भी सेवा करे । इतना ही नहीं, यह भगवान्‌की भी सेवा करे ! भगवान्‌ भी मनुष्यसे आशा रखते हैं । कुटुम्बी भी आशा रखते हैं । इनकी सेवा करो और स्वयं नाम-जप करो । दूसरोंसे भी नाम-जप करनेके लिये कहो‒‘स्मरन्तः स्मारयन्तः’, ‘रामनामकी लूट है, लूट सके तो लूट !’ भगवान्‌का नाम मीठा लगे, प्यारा लगे । प्यारा न लगे तो भगवान्‌से कहो कि ‘हे नाथ ! मुझे आपका नाम प्यारा लगे, हे प्रभु ! मैं आपको भूलूँ नहीं ।’ मिनट-मिनटमें, आधे-आधे मिनटमें कहते रहो कि ‘हे नाथ ! आपको भूलूँ नहीं ।’

‘भूले नाहिं बने कृपानिधि भूले नाहिं बने’

‘विस्मार्यते कृतविदा कथामार्तबन्धो’

(श्रीमद्भा ४/९/८)

भगवान्‌की कृपाको जाननेवाला कोई भी पुरुष भगवान्‌को कैसे भूल सकता है ? भगवान्‌ने कितनी विचित्र कृपा की है ! सब अंग दिये हैं, मन दिया है, बुद्धि दी है, अच्छे घरमें जन्म दिया है । अच्छी जगह पले हो, अच्छे संस्कारमें आये हो, भगवान्‌को मानते हो, सत्संगमें जाते हो । कितना सुन्दर अवसर दिया है ! अब थोड़ा-सा और करो तो निहाल हो जाओ !

जिन जीवोंको भगवान्‌ने मनुष्यशरीर दिया है, उन जीवोंको भगवान्‌ने अपने पास आनेका निमन्त्रण दे दिया है ! जैसे ब्राह्मण, साधुको कोई निमन्त्रण देकर अपने घर ले जाय, आसन देकर बैठा दे, सामने पत्तल और जल रख दे, तो फिर यह सोचनेकी जरूरत नहीं है कि वह अन्न देगा कि नहीं देगा ? अगर अन्न नहीं देगा तो उसने निमन्त्रण क्यों दिया है ? जब सब सामग्री दी है तो अन्न भी देगा । ऐसे ही भगवान्‌ने मनुष्यशरीर दे दिया, अच्छी रुचि दे दी, अच्छा संग दे दिया, तो क्या अपनी प्राप्ति नहीं करायेंगे ? वे तो तैयार हैं कि आओ, खूब मौजसे भोजन करो और सदाके लिये तृप्त हो जाओ ! इसलिये भगवत्प्राप्तिकी चिन्ता न करके नाम-जप करो, संसारकी सेवा करो और आशा मत रखो । संसार आपसे सुखकी आशा रखता है । जो आपसे सुख चाहता है, उससे आप भी सुख चाहोगे तो दो ठगोंमें ठगाई कैसे होगी ? आपके मनमें है कि भाई-बन्धु, माँ-बापसे मैं ले लूँ और वे चाहते हैं कि आपसे ले लें । दोनों ठग हुए । दोनों ठगे जायँगे और मिलेगा कुछ नहीं । जैसे भूखेको अन्न देनेका और प्यासेको जल पिलानेका बड़ा माहात्मय है, ऐसे ही सेवा चाहनेवालोंकी सेवा करनेका बड़ा माहात्म्य है !

बहनोंको चाहियेकी ससुरालमें रहें तो सबकी सेवा करें । अपने पिताके घरमें रहें तो सबकी सेवा करें । मनमें यह भाव रखें कि मैं दूसरे घर चली जाऊँगी तो वहाँ इनकी‒माता, पिता, चाचा, ताऊ, मामा, भाई, भौजाई आदिकी सेवा कहाँ मिलेगी ? माता-पितासे शरीर मिला है, उन्होंने मेरा पालन-पोषण किया है । इतने कुटुम्बियोंसे मैंने लिया-ही-लिया है तो वापस कब दूँगी ? इसलिये बहनोंको चाहिये कि लड़कपनसे सेवा शुरू कर दें । पीहरसे लेना-ही-लेना किया तो सेवा कब करोगी ? वे तो उम्रभर देंगे । ससुरालमें अधिकार मिल गया तो अब वहाँ भी सबकी सेवा करो, सबको सुख पहुँचाओ । फिर देखो, आपका गृहस्थ भी शान्तिदायक हो जायगा और भगवान्‌की प्राप्ति भी हो जायगी ।

केवल भाव बदल दो कि मैं तो सेवा करनेके लिये हूँ । रोजाना सुबह और शाम बड़ोंके चरणोंमें प्रणाम करो । काम-धन्धा खुद करो और सुख-आराम दूसरोंको दो । निन्दा, तिरस्कार, उलाहना, अपमान अगर मिलते हों तो खुद ले लो और मान-बड़ाई, आदर-सत्कार दूसरोंको दो । फिर आप देखो, कितना आनन्द होता है ! कौटुम्बिक स्‍नेह भी हो जायगा और भजन भी हो जायगा । भजनका लाभ भी दिखेगा । संसारकी आशा रखोगे तो लाभ नहीं दिखेगा । रुपये मिल जायँ, आराम मिल जाय तो आपको यह लाभ दीखता है । इसके लिये आप रात-दिन दौड़ते रहते हैं । वह तो जितना मिलना है, उतना ही मिलेगा । नहीं मिलना है तो नहीं मिलेगा । परन्तु भगवान्‌का भजन असली धन है, जो करनेसे ही मिलेगा । नहीं करोगे तो नहीं मिलेगा । अतः इस असली धनका संग्रह करो ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘भगवान्‌से अपनापन’ पुस्तकसे