परमात्माकी प्राप्ति होनेसे पहले विकारोंकी
निवृत्ति हो जाय‒यह कोई नियम नहीं है । परन्तु परमात्माकी
प्राप्ति होनेके बाद विकार नष्ट हो जाते हैं । ‘रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते’ (गीता २/५९) ‘रसरूपी विकार परमात्माका
साक्षात्कार होनेके बाद मिट जाते हैं ।’ इसमें एक मार्मिक और बहुत ही लाभकी
बात है । आप उसको गहरे उतरकर समझें, इतनी प्रार्थना है । हमें अनुकूल व्यक्ति, पदार्थ, परिस्थिति आदि मिलें और
प्रतिकूल व्यक्ति, पदार्थ, परिस्थिति आदि न मिलें‒यही संसार है । अनुकूलता-प्रतिकूलताका हमारेपर जो असर पड़ता है, उसका नाम ही
विकार है । इन विकारोंसे हमें छूटना है; क्योंकि जबतक विकार होते रहेंगे, तबतक
शान्ति नहीं मिलेगी । इस बातकी खोज करो कि विकार कहाँ होते हैं ? विकार मन और बुद्धिमें होते हैं, अन्तःकरणमें होते हैं । अतः
विकार करणमें होते हैं कर्तामें नहीं होते‒यह खास समझनेकी बात है । आपको
अनुकूलता मिली तो आप सुखी हो गये, प्रतिकूलता मिली तो आप दुःखी हो गये । सुखी और
दुःखी होना‒ये दोनों अवस्थाएँ हुईं । इन दोनों अवस्थाओंमें आप दो हुए या एक ही रहे
? इस बातपर विचार करें । सुखकी अवस्थामें आप वे ही रहे और दुःखकी अवस्थामें भी आप
वे ही रहे‒यह बात सच्ची हैं न ? वास्तवमें ये अवस्थाएँ
भी मन-बुद्धिमें होती हैं, पर इनको आप अपनेमें मान लेते हो‒यह गलती होती है ।
आप सुख-दुःखकी अवस्थाओंमें अपनेको सुखी-दुःखी मान लेते हो । सुख-दुःखका असर
अन्तःकरणपर पड़ जाता है तो आप सुखी-दुःखी हो जाते हो । विकारोंको आप अपनेमें मान
लेते हो । वास्तवमें विकार आपमें हुए ही नहीं, विकार तो
अन्तःकरणमें हुए । सुख और दुःख‒इन दोनोंको आप जानते हो । दोनोंको
वही जान सकता है, जो दोनोंसे अलग हो । जो सुखमें भी रहता है और दुःखमें भी रहता है, वही सुख और दुःख‒इन दोनोंको जान
सकता है । सुख अलग है और दुःख अलग है । इनसे अलग रहनेवाला इन दोनोंको जानता है ।
अगर वह इनके साथ मिला हुआ हो तो सुख और दुःख‒दोनोंको नहीं जानेगा, प्रत्युत एकको
ही जानेगा, जिसके साथ वह रहा है । दूसरी बात, सुखी होते समय भी आप वे ही हो और दुःखी होते समय
भी आप वे ही हो, तभी तो आपको दोनोंका अलग-अलग अनुभव होता है । सुख और दुःख‒दोनोंका अलग-अलग अनुभव करनेवाला सुख-दुःखसे अलग है
। सुख-दुःखसे अलगका अनुभव कब होगा ? जब आप प्रकृतिमें स्थित न होकर ‘स्व’ में स्थित हो जाओगे‒‘समदुःखसुखः स्वस्थः’ (गीता १४/२४) । प्रकृति विकारी है । उसमें आप स्थित होंगे
तो विकार होगा ही । परन्तु वह विकार आपमें (स्वयंमें) कभी नहीं होगा । अज्ञान-अवस्थामें भी आपमें विकार नहीं हुआ । आपके स्वरूपमें
कभी विकार हुआ ही नहीं, हो सकता ही नहीं । यदि आपमें विकार होते तो वे कभी मिटते
ही नहीं । विकार प्रकृतिमें होते हैं । प्रकृतिसे अपनेको अलग अनुभव करना ही
तत्त्वज्ञानको, जीवन्मुक्तिको प्राप्त करना है । वास्तवमें
आप प्रकृतिसे आप अलग हैं । इस बातको जाननेके लिये आप कृपा करें, थोड़ा ध्यान दें । आप आने-जानेवाले नहीं
हैं । भगवान्ने कहा है‒ मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः । आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥ (गीता २/१४)
‘हे कुन्तीनन्दन ! इन्द्रियोंके वे विषय हैं
जो अनुकूलता और प्रतिकूलताके द्वारा सुख और दुःख देनेवाले हैं । वे आने-जानेवाले
और अनित्य हैं । हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! उनको तुम सहन करो ।’ |