।। श्रीहरिः ।।

                     


आजकी शुभ तिथि–
  आश्विन शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०७८,  सोमवार
                             

विकार आपमें नहीं हैं


अनुकूलता अच्छी लगती है और प्रतिकूलता बुरी लगती है । ये दोनों ही आने-जानेवाली और अनित्य हैं । इनको आप सह लो । सुख आये, उसको भी सह लो और दुःख आये, उसको भी सह लो । सुखमें सुखी हो गये और दुःखमें दुःखी हो गये तो यह आपसे सहा नहीं गया । यह आपसे गलती हुई । आप आने-जानेवाले और अनित्य नहीं हो । आप नित्य हो और विकार अनित्य हैं । जब आप अनित्यके साथ मिलते हो, तब आप अपनेमें विकार मानते हो । आने-जानेवालेके साथ रहनेवाला मिल जाता है‒यही गलती होती है । यदि आप ‘स्व’ में स्थित हो जायँगे तो आपको अनुकूलता और प्रतिकूलताका ज्ञान तो होगा, पर उसका आपपर असर नहीं पड़ेगा । इसीका नाम मुक्ति है । विकारोंसे छूटना ही मुक्ति है । मुक्ति नित्य है, इसलिये मुक्तिके बाद फिर बन्धन नहीं होता‒‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव’ (गीता ४/३५), फिर मोह नहीं होता । कारण कि वास्तवमें आपके भीतर मोह नहीं है । केवल अपने स्वरूपका अनुभव करना है । इस विषयमें आपसे बात करनेकी जितनी मेरी लगन है, उतनी आपकी लगन नहीं है ।

सुख और दुःख तो आने-जानेवाले हैं और वे पहुँचते हैं मन-बुद्धितक, ज्यादा-से-ज्यादा ‘अहम्‌’ तक । ‘अहम्‌’ एकदेशीय है, क्योंकि वह प्रकाशित होता है । जैसे यह चीज दीखती है, ऐसे ही ‘अहम्‌’ दीखता है । ‘अहम्‌’ आँखोंसे नहीं दीखता, पर भीतरमें ‘अहम्‌’ अर्थात्‌ ‘मैं’ का अनुभव होता है । सब विकार इस ‘मैं’ तक ही पहुँचते हैं । जिस प्रकाशमें यह ‘अहम्’ दीखता है, उस प्रकाशमें कोई विकार नहीं है । जिसमें विकार होते हैं, उसको भी आप जानते हैं और विकारोंको भी आप जानते हैं । उस जाननेपनमें विकार हैं क्या ? आप ‘अहम्‌’ के साथ मत मिलो । ‘अहम्‌’ के साथ मिलना प्रकृतिमें स्थित होना है । यह ‘अपरा’ प्रकृति है और आप जीवरूपा ‘परा’ प्रकृति हो । परा प्रकृतिने जगत्‌को धारण कर लिया‒‘ययेदं धार्यते जगत्‌’ (गीता ७/५) । जगत्‌को धारण करनेसे यह विकारोंमें फँस गया । शरीर मैं हूँ, शरीर मेरा है; मन मैं हूँ, मन मेरा है; बुद्धि मैं हूँ, बुद्धि मेरी है; अहम्‌ मैं हूँ, अहम्‌ मेरा है‒यह जो मानना है, यही जगत्‌को धारण करना है ।

जीव अंश तो भगवान्‌का है, पर वह भगवान्‌में स्थित न होकर प्रकृतिमें स्थित हो जाता है (गीता १५/७) । अपरा प्रकृति बड़ी सपूत है, वह बेचारी अपनेमें ही स्थित रहती है, आपमें स्थित होती ही नहीं । आप स्वतन्त्र हो, चेतन हो । चेतन होनेसे आप अपने स्वरूपमें नहीं रहते हो और प्रकृतिमें भी स्थित हो जाते हो । भगवान्‌ने कितना सुन्दर पद दिया है‒‘मनः षष्ठानीन्द्रियाणिप्रकृतिस्थानि’ !