ये शरीर, इन्द्रियाँ आदि प्रकृतिमें ही स्थित रहते हैं, कभी
प्रकृतिको छोड़कर आपमें आते ही नहीं । वास्तवमें आप
प्रकृतिमें स्थित नहीं हो, प्रत्युत भगवान्के अंश होनेसे भगवान्में स्थित हो । ‘अहम्’
तो प्रकृति है । प्रकृतिको धारण करो अथवा न करो‒इसमें आप स्वतन्त्र हो । इनमें आप
पराधीन नहीं हो । जिस ज्ञानके अन्तर्गत ‘अहम्’ दीखता है, उस ज्ञानमें ‘अहम्’
नहीं है । आप उस ज्ञानमें स्थित रहो । उसमें आपकी स्थिति
स्वतः है । अपना जो स्वरूप है, उस प्रकाशमें ‘अहम्’ दीखता है । अगर वह
नहीं दीखता, तो ‘अहम्’ है‒इसमें क्या गवाह है ? आप खुद अपरा प्रकृतिको पकड़ते हो ।
आप जिसको पकड़ते हो, अधिकार देते हो, वही आपपर अधिकार करता है । आप अधिकार नहीं दो
तो उसमें आपपर अधिकार जमानेकी ताकत नहीं है । आने-जानेवाला
आपपर अधिकार कैसे जमायेगा ? उसको आप ‘मैं’ और ‘मेरा’ मान लेते हो, तब आफत आती है । सुख-दुःख दीखते हैं । विकार दीखते हैं । जैसे सब
वस्तुएँ एक प्रकाशमें दीखती हैं, ऐसे ही ‘अहम्’ एक प्रकाशमें दीखता है । प्रकाश न हो तो ‘अहम्’ दीखे ही नहीं । ‘अहम्’ को आप पकड़ते हो तो किसी गवाहसे नहीं, प्रत्युत
स्वतन्त्रतासे पकड़ते हो । कोई आपको मदद करके पकड़ानेवाला है ही नहीं । ‘अहम्’ को
आपने माना है तो आप ‘अहम्’ को न मानें । सन्तोंने कहा है‒‘देखो निरपख होय तमाशा’ निरपेक्ष होकर तमाशा देखो । जो प्रकाश अपना
स्वरूप है, उसमें ‘अहम्’ को धारण मत करो । गाढ़ नींदमें ‘अहम्’ का भान नहीं होता । जागनेपर कहते हो कि
‘नींदमें मेरेको कुछ पता नहीं था’; अतः वहाँ ‘अहम्’ नहीं था, पर आप तो थे ही ।
गाढ़ नींदमें ‘मैं अभी सोया हुआ हूँ’‒ऐसा आपको अनुभव नहीं होता । जागनेपर ही आप
कहते हो कि मैं ऐसा सोया, मेरेको कुछ पता नहीं था । ‘कुछ पता नहीं था’‒यह स्मृति
है । स्मृति अनुभवजन्य होती है‒‘अनुभूतविषयासम्प्रमोषःस्मृतिः’
(योगदर्शन १/११) । आपको स्मृति आती है कि मैं गहरी नींदमें सोया ।
गहरी नींदमें ‘अहम्’ (मैं) लीन था, पर आप लीन नहीं हुए थे । अगर आप लीन हो जाते
तो ‘मेरेको गाढ़ नींद आयी, मेरेको कुछ पता नहीं था’‒यह नहीं कह सकते थे । नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे |