जितने भी असत् पदार्थ अर्थात्
उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुएँ हैं, उनके दो विभाग हैं‒(१) शरीर, रुपये, मकान आदि
पदार्थ और (२) काम, क्रोध, लोभ आदि वृत्तियाँ । जैसे
पदार्थ उत्पन्न होते हैं और मिट जाते हैं, ऐसे ही वृत्तियाँ भी उत्पन्न होती हैं
और मिट जाती हैं । पदार्थों और वृत्तियाँका तो अभाव हो जाता है, पर सत्
वस्तुका कभी अभाव नहीं होता । हमारा स्वरूप सत् है और उसका अभाव
कभी हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं तथा हो सकता ही नहीं । इसके विपरीत असत्
वस्तुका अस्तित्व कभी हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं और हो सकता ही नहीं । अतः हम
जो यह लोभ करते हैं कि रुपये बने रहें, शरीर बना रहे, कुटुम्ब बना रहे, यह हम गलती
करते हैं । ऐसे ही हम जो यह भय करते हैं कि कामना आ गयी, क्रोध आ गया, लोभ आ गया,
विषमता आ गयी, ये वृत्तियाँ नहीं रहनी चाहिये, यह भी हम गलती करते हैं । कारण कि
जिनका अस्तित्व ही नहीं है, उनके बने रहनेकी इच्छा करना भी गलती है और उनके न
आनेकी इच्छा करना भी गलती है । पदार्थ बने रहें‒इसका अर्थ यह हुआ कि पदार्थ हैं,
इसलिये इनको बने रहना चाहिये । काम, क्रोध आदि नहीं
रहें‒इसका अर्थ यह हुआ कि काम, क्रोध आदि हैं, इसलिये इनको नहीं रहना चाहिये ।
तात्पर्य यह हुआ कि पदार्थोंको रखनेकी इच्छा करना और वृत्तियोंको मिटानेकी इच्छा
करना‒दोनों इच्छाएँ असत्
वस्तु (पदार्थ और वृत्ति)-की सत्ता माननेसे ही पैदा होती हैं । काम, क्रोध आदि वृत्तियाँके आनेसे साधकको घबराना नहीं
चाहिये । स्थूलदृष्टिसे भी देखें तो काम, क्रोध आदि हरदम नहीं रहते । काम पैदा हुआ
तो पैदा होते ही नष्ट होना शुरू हो गया । क्रोध पैदा हुआ तो पैदा होते ही नष्ट
होना शुरू हो गया । मोह पैदा हुआ तो पैदा होते ही नष्ट होना शुरू हो गया । नष्ट
होना क्या शुरू हो गया, उसकी सत्ता ही नहीं है ! असत्की सत्ता विद्यमान नहीं है‒‘नासतो
विद्यते भावः’ (गीता २/१६) । जो कभी है और कभी नहीं है, वह वास्तवमें कभी
नहीं है । जिसका कभी भी अभाव है, उसका सदा ही अभाव है । जिसका किसी भी जगह अभाव
है, उसका सब जगह ही अभाव है । जिसका किसी भी व्यक्तिमें अभाव है, उसका सम्पूर्ण
व्यक्तियोंमें अभाव है । जिसका किसी भी परिस्थितिमें अभाव है, उसका सम्पूर्ण
परिस्थितियोंमें अभाव है । अतः हम काम, क्रोध, लोभ आदिसे
भयभीत होते हैं तो यह गलती है । तो फिर क्या करें ? ये काम, क्रोध आदि हमारेमें
हैं ही नहीं‒ऐसा एक निश्चय कर लें । जो सच्ची बात है, उस बातको पकड़ लें । सच्ची बातको पकड़नेका नाम ही साधन
है । जो पहलेसे ही मिटा हुआ है, उसको क्या मिटायें ? जिसका अभाव है, उसकी सत्ता मानकर आप उसको मिटानेका उद्योग करते हैं, पर वास्तवमें उद्योग उसको मिटानेका नहीं होता, प्रत्युत उसको दृढ़ करनेका हो जाता है; क्योंकि सत्ता मानकर ही मिटाना होता है । जिन पदार्थोंको आप रखना चाहते हैं, उनकी भी सत्ता नहीं है । मेरेमें काम है, क्रोध है‒इस तरह आप उनको सत्ता देते हैं, यही वास्तवमें भूल है । अब जितना ही उनको मिटानेका उद्योग करोगे, उतना ही वे दृढ़ होंगे । अतः मूलमें उनकी सत्ता ही नहीं है‒इस बातपर दृढ़ रहें अर्थात् उनके अभावका अनुभव करें कि वास्तवमें वे न स्वरूपमें हैं, न स्वभावमें हैं । |