।। श्रीहरिः ।।

                       


आजकी शुभ तिथि–
     आश्विन पूणिमा, वि.सं.-२०७८,  बुधवार
                             
     काम-क्रोधसे छूटनेका उपाय




जितने भी असत्‌ पदार्थ अर्थात्‌ उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुएँ हैं, उनके दो विभाग हैं‒(१) शरीर, रुपये, मकान आदि पदार्थ और (२) काम, क्रोध, लोभ आदि वृत्तियाँ । जैसे पदार्थ उत्पन्न होते हैं और मिट जाते हैं, ऐसे ही वृत्तियाँ भी उत्पन्न होती हैं और मिट जाती हैं । पदार्थों और वृत्तियाँका तो अभाव हो जाता है, पर सत्‌ वस्तुका कभी अभाव नहीं होता ।

हमारा स्वरूप सत्‌ है और उसका अभाव कभी हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं तथा हो सकता ही नहीं । इसके विपरीत असत्‌ वस्तुका अस्तित्व कभी हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं और हो सकता ही नहीं । अतः हम जो यह लोभ करते हैं कि रुपये बने रहें, शरीर बना रहे, कुटुम्ब बना रहे, यह हम गलती करते हैं । ऐसे ही हम जो यह भय करते हैं कि कामना आ गयी, क्रोध आ गया, लोभ आ गया, विषमता आ गयी, ये वृत्तियाँ नहीं रहनी चाहिये, यह भी हम गलती करते हैं । कारण कि जिनका अस्तित्व ही नहीं है, उनके बने रहनेकी इच्छा करना भी गलती है और उनके न आनेकी इच्छा करना भी गलती है । पदार्थ बने रहें‒इसका अर्थ यह हुआ कि पदार्थ हैं, इसलिये इनको बने रहना चाहिये । काम, क्रोध आदि नहीं रहें‒इसका अर्थ यह हुआ कि काम, क्रोध आदि हैं, इसलिये इनको नहीं रहना चाहिये । तात्पर्य यह हुआ कि पदार्थोंको रखनेकी इच्छा करना और वृत्तियोंको मिटानेकी इच्छा करना‒दोनों इच्छाएँ असत्‌ वस्तु (पदार्थ और वृत्ति)-की सत्ता माननेसे ही पैदा होती हैं ।

काम, क्रोध आदि वृत्तियाँके आनेसे साधकको घबराना नहीं चाहिये । स्थूलदृष्टिसे भी देखें तो काम, क्रोध आदि हरदम नहीं रहते । काम पैदा हुआ तो पैदा होते ही नष्ट होना शुरू हो गया । क्रोध पैदा हुआ तो पैदा होते ही नष्ट होना शुरू हो गया । मोह पैदा हुआ तो पैदा होते ही नष्ट होना शुरू हो गया । नष्ट होना क्या शुरू हो गया, उसकी सत्ता ही नहीं है !

असत्‌की सत्ता विद्यमान नहीं है‒‘नासतो विद्यते भावः’ (गीता २/१६) । जो कभी है और कभी नहीं है, वह वास्तवमें कभी नहीं है । जिसका कभी भी अभाव है, उसका सदा ही अभाव है । जिसका किसी भी जगह अभाव है, उसका सब जगह ही अभाव है । जिसका किसी भी व्यक्तिमें अभाव है, उसका सम्पूर्ण व्यक्तियोंमें अभाव है । जिसका किसी भी परिस्थितिमें अभाव है, उसका सम्पूर्ण परिस्थितियोंमें अभाव है । अतः हम काम, क्रोध, लोभ आदिसे भयभीत होते हैं तो यह गलती है । तो फिर क्या करें ? ये काम, क्रोध आदि हमारेमें हैं ही नहीं‒ऐसा एक निश्चय कर लें । जो सच्ची बात है, उस बातको पकड़ लें । सच्ची बातको पकड़नेका नाम ही साधन है ।

जो पहलेसे ही मिटा हुआ है, उसको क्या मिटायें ? जिसका अभाव है, उसकी सत्ता मानकर आप उसको मिटानेका उद्योग करते हैं, पर वास्तवमें उद्योग उसको मिटानेका नहीं होता, प्रत्युत उसको दृढ़ करनेका हो जाता है; क्योंकि सत्ता मानकर ही मिटाना होता है । जिन पदार्थोंको आप रखना चाहते हैं, उनकी भी सत्ता नहीं है । मेरेमें काम है, क्रोध है‒इस तरह आप उनको सत्ता देते हैं, यही वास्तवमें भूल है । अब जितना ही उनको मिटानेका उद्योग करोगे, उतना ही वे दृढ़ होंगे । अतः मूलमें उनकी सत्ता ही नहीं है‒इस बातपर दृढ़ रहें अर्थात्‌ उनके अभावका अनुभव करें कि वास्तवमें वे न स्वरूपमें हैं, न स्वभावमें हैं ।