श्रोता‒काम, क्रोध आदि दोष बाहरसे तो उत्पन्न और नष्ट होते हैं, पर भीतरमें तो
बीजरूपसे पड़े ही रहते हैं ? स्वामीजी‒उनकी बीजरूपसे धारणा आपने ही कर रखी
है । बीजरूपसे भी क्या वे सत् हैं ? वे तो असत् ही हैं श्रोता‒पदार्थोंका स्वाभाविक नाश हो रहा है, यह बात तो
समझमें आती है, पर काम, क्रोध आदि विकार भी स्वाभाविक मिट रहे हैं‒यह बात समझमें
नहीं आती ! विकारोंको मिटाये बिना वे कैसे मिटेंगे ? स्वामीजी‒किसीके लड़केकी मृत्यु हो जाय
तो उस दिन जो शोक होता है, वह बारह-पन्द्रह दिनके बाद वैसा रहता है क्या ? बारह
महीनोंके बाद वैसा रहता है क्या ? दस-बारह वर्षोंके बाद वैसा रहता है क्या ? नहीं
रहता । इससे सिद्ध होता है कि शोकके मिटाये बिना वह मिटता है । घरमें कोई मर जाता
है तो दिवालीके दिन मीठा नहीं बनता; परन्तु दस-बीस वर्षोंके बाद क्या उस घरमें
मीठा नहीं बनता ? क्या उस घरमें विवाह नहीं होता ? शोक
तो बिना मिटाये मिट जाता है; क्योंकि असत् वस्तुकी सत्ता है ही नहीं । उसको
मिटानेका उद्योग करके आप ही उसको सत्ता देते हो । जैसे पदार्थ स्थायी नहीं होता, ऐसे ही
वृत्ति भी स्थायी नहीं होती । शोकमें डूबा हुआ आदमी भी बातें करते-करते मौकेपर हँस
देता है, प्रसन्न हो जाता है तो उस समय वह शोक कहाँ रहा ? उत्पन्न होनेवाली वस्तु नष्ट होनेवाली होती है‒यह नियम है । क्रोध आये तो उसको
महत्त्व मत दो । ऐसा समझो कि यह तो मिट रहा है । अगर क्रोधको घंटाभर रहना
है और क्रोध आनेके बाद पाँच मिनट बीत गये तो क्या अब उसकी उम्र घंटाभर रही ? पाँच
मिनट वह मर गया कि नहीं ? बीजरूपसे भी वह रहता नहीं है; क्योंकि उसकी स्वतन्त्र
सत्ता नहीं है । मूलमें सत्ता तो परमात्माकी है ।
जब प्रकृति और प्रकृतिके कार्यमात्रकी ही स्थायी सत्ता नहीं है तो फिर क्रोध आदि
विकारोंकी स्थायी सत्ता कैसी ? प्रकृतिके बाहर विकार हैं ही कहाँ ? मुफ्तमें ही विकारोंको मिटानेके लिये उद्योगमें समय बरबाद कर
लिया, जबकि मूलमें विकार है ही नहीं । यही बात समझनेकी और धारण करनेकी है ।
सत्संगके द्वारा यही तो प्रकाश मिलता है । श्रोता‒बिना साधनाके क्रोध कैसे मिटेगा ? स्वामीजी‒क्रोध तो बिना साधनाके ही
मिटता है ! आप ध्यान दें, क्रोध साधनासे जल्दी नहीं मिटेगा । आप क्रोधकी उपेक्षा
कर दें तो वह अपने-आप मिट जायगा । वह तो मिट ही रहा है, आप ही उसको सत्ता दे रहें
हैं ।
मैंने शोकका जो दृष्टान्त दिया है, उसपर आप विचार करें । घरमें कोई मर जाता है तो
आप उसको याद कर-करके, रो-रोकर शोकको जीवित रखते हैं और दूसरे लोग़ भी आ-आकर उसको
याद करते हैं, पर जीवित रखनेका उद्योग करनेपर भी वह शोक जीवित नहीं रहता, मिट ही
जाता है । कारण कि उसमें ताकत नहीं है टिकनेकी । श्रोता‒कभी दूसरी कोई घटना होगी तो फिर शोक हो जायगा; अतः शोकका बीज तो रहेगा ही ?
स्वामीजी‒अगर आप ऐसा मानेंगे तो फिर अज्ञान कभी
मिटेगा ही नहीं । अज्ञानको मिटानेकी सब चेष्टा निरर्थक होगी । कारण कि शोकका बीज
अज्ञान है और अज्ञान भी असत् ही है । कारण कि ज्ञानके अभावका नाम अज्ञान नहीं है,
प्रत्युत अधूरे ज्ञानका नाम अज्ञान है । आप साधनकी
दृष्टिसे देखें तो भी ‘विकार हैं और उसको मिटाना है’‒इसकी अपेक्षा ‘विकार है ही नहीं’‒यह
मानना बढ़िया है । जिसकी सत्ता ही नहीं है, उसको मिटायें क्या ? विकार पहले
भी नहीं था, पीछे भी नहीं रहेगा और अभी भी मिट रहा है‒ये तीनों बातें बहुत ही
मार्मिक हैं । यह सिद्धान्त है कि जो आदि और अन्तमें
नहीं होता, उसकी सत्ता वर्तमानमें भी नहीं होती । |