साधन करनेवाले भाई-बहन इस बातको खूब सरलतासे समझ लेंगे कि साधन करते-करते काम, क्रोध आदिकी वृत्तियाँ बिना उद्योग किये
स्वतः कम होती हैं । आप सत् वस्तुकी तरफ दृष्टि रखेंगे तो असत् वस्तु
स्वतः ही निवृत्त होगी; क्योंकि वह स्वतः निवृत्त है‒‘नासतो
विद्यते भावः’ । क्रियात्मक साधनकी अपेक्षा विवेकात्मक और
भावात्मक साधन तेज हैं । कारण कि
क्रियाका अन्त होता है, पर विवेक और भाव सूक्ष्म होते हैं । अतः क्रियात्मक साधन
करके विकारोंको मिटानेका उद्योग करनेसे इतना जल्दी काम नहीं बनता; किन्तु विवेक और
भावसे विकारोंकी सत्ता ही नहीं माननेसे विकार स्वतः मिट जाते हैं । असत्की सत्ता विद्यमान है ही नहीं‒यह विवेक और भाव जितना काम
करेगा, उतना क्रिया काम नहीं करेगी । एक करण-सापेक्ष साधन है और एक करण-निरपेक्ष साधन है ।
करण-सापेक्ष साधनमें शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिका आश्रय लेकर साधन किया जाता है,
पर करण-निरपेक्ष साधनमें शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिका आश्रय
नहीं लिया जाता, प्रत्युत उनसे माने हुए सम्बन्धका विच्छेद किया जाता है ।
करण-सापेक्ष साधनमें बहुत देर लगती है, पर करण-निरपेक्ष साधनमें तत्काल सिद्धि
होती है । अगर आप करण-सापेक्ष साधनके द्वारा अहंताको मिटाओगे तो वह
जन्म-जन्मान्तरोंतक मिटेगी नहीं, पर ‘वह है ही नहीं’‒ऐसा
स्वयंसे अनुभव कर लोगे तो वह टिकेगी नहीं । वह सोचता है कि मैं इसको मिटा
रहा हूँ, पर कर रहा है दृढ़ । यह जो अवगुणोंकी सत्ताको मानना है, इसमें एक बड़े भारी
अनर्थकी बात यह है कि जिस समय क्रोध आता है, उस समय आप ‘क्रोध किसको नहीं आता ?
अन्न खाते हैं तो क्रोध आयेगा ही’‒ऐसा मानकर अपनेमें क्रोधकी सत्ताको दृढ़ करते हैं
। इस प्रकार जिस समय क्रोध आया है, उस समय भी अपनेमें
क्रोध मानते हैं और जिस समय क्रोध नहीं आया है, उस समय भी अपनेमें क्रोधको मानते
हैं, तो अब क्रोध मिटे कैसे ? क्रोधको आपने अखण्डरूपसे पकड़ रखा है, इसलिये
वह आपमें बैठा है, नहीं तो क्या चोर-डाकूमें इतनी ताकत है कि वह आपके घरमें बैठा
रहे ? आपने खुद ही उसको अपनेमें बैठा रखा है । विचार करना चाहिये कि क्रोध तो
आता-जाता है, पर मैं हरदम रहता हूँ, फिर मैं क्रोधी कैसे ? अगर मेरेमें क्रोध है,
तो फिर उसको हरदम रहना चाहिये अर्थात् जबतक मैं रहूँ, तबतक क्रोधको भी रहना
चाहिये । मैं तो विद्यमान हूँ, पर क्रोध विद्यमान नहीं है, तो फिर मैं क्रोधी कैसे
हुआ ? हरदम रहनेवाला तो एक सत्-तत्त्व ही है । इसके
सिवाय और कोई भी वस्तु हरदम रहनेवाली नहीं है । सब दोष स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरमें ही रहते
हैं । जब शरीर ही असत् है, तो फिर उसमें रहनेवाले दोष सत् कैसे ? परन्तु आप उनको
अपनेमें स्थायी मानकर उनको दृढ़ करनेका उद्योग करते हैं और फिर कहते हैं कि ये दूर होते ही नहीं ! यह दशा करण-सापेक्ष साधनमें होती
है । करण-निरपेक्ष साधनमें यह दशा नहीं होती । करण-निरपेक्ष साधनमें न वृत्ति लगानेकी जरूरत है, न बुद्धि
लगानेकी जरूरत है, न मन लगानेकी जरूरत है । दोष अपनेमें है ही नहीं‒इसको स्वयंसे स्वीकार करना
है, मन-बुद्धिसे नहीं । यह करण-निरपेक्ष साधन बहुत श्रेष्ठ है, पर इसके
विषयमें बहुत कम पढ़ने-सुननेको मिलता है । साधन करना खुद धनको कमाना है और सत्संग करना धनी व्यक्तिकी
गोद जाना है । गोद जानेवालेको क्या कमाना पड़ता
है ? उसको तो कमाया हुआ धन मिलता है । ऐसे ही
सत्संगमें जानेसे बिना साधन किये साधन होता है । एक बार मैंने ऋषिकेशमें
सत्संगी भाई-बहनोंसे कहा कि आप सब पत्थर हैं, पर हैं गंगाजीके ! गंगाजीके पत्थर
कैसे सुन्दर, गोल-गोल हो जाते हैं और अच्छे लगते हैं ! उन पत्थरोंने न तो खुद कोई
उद्योग किया है और न किसी दूसरे व्यक्तिने ही उद्योग किया है । वे गंगाजीके
प्रवाहमें पड़े रहे और लुढ़क-लुढ़ककर गोल-गोल हो गये । ऐसे ही सत्संगमें पड़े-पड़े आप
गोल पत्थर बन गये ! जो पढ़े-लिखे नहीं है, जिनको हस्ताक्षर करना भी नहीं आता, ऐसे
साधारण पुरुषोंको भी सत्संगके प्रभावसे अच्छे-अच्छे पण्डितोंकी बातोंमें भी गलती दीख
जाती है । गंगाजीका पत्थर पवित्र होता है । सत्संगमें
पड़े रहनेमात्रसे मनुष्य पवित्र हो जाता है । उसमें अपने-आप गुण आ जाते हैं और दोष
स्वाभाविक मिट जाते हैं । नारायण ! नारायण !! नारायण !!! ‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे |