यह जीवात्मा परमात्माका साक्षात् अंश है । अतः जैसे परमात्मा सत्यसंकल्प हैं, ऐसे ही यह जीवात्मा भी एक अंशमें सत्यसंकल्प है । जब
जीवात्मा अपनेमें राग-द्वेषादि दोषोंकी मान्यता कर लेता है, तब इसमें वे दोष दीखने
लग जाते हैं, नहीं तो वे दोष इसमें है नहीं । राग-द्वेष, हर्ष-शोक, काम,
क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि जितने भी दोष हैं, उनमेंसे कोई-सा भी दोष
जीवात्मामें नहीं है । अगर इसमें दोष होते तो इसको ‘चेतन
अमल सहज सुखरासी’ नहीं कहते । जितने भी विकार है, वे सब प्रकृतिके गुणोंमें ही रहते हैं;
परन्तु जीवात्मा गुणोंसे रहित है‒‘निर्गुणत्वात्’ (गीता
१३/३१) । प्रकृतिके गुणोंमें ही सात्त्विक, राजस और तामस वृत्तियाँ रहती
हैं, जिनका वर्णन गीताके चौदहवें अध्यायमें आया है । स्वयंमें
वृत्तियाँ नहीं रहतीं । अगर यह बात ठीक अनुभवमें आ जाय तो मनुष्य तत्काल जीवन्मुक्त
हो जाय ! तत्काल जीवन्मुक्त क्यों हो जाय ? कि वास्तवमें यह जीवन्मुक्त ही
है । मुक्ति स्वतःसिद्ध है और बन्धन पकड़ा हुआ है,
कृत्रिम है । बन्धन न होते हुए भी जीवने बन्धनको स्वीकार कर लिया है ।
जीवने ही असत्को धारण कर रखा है‒‘ययेदं धार्यते जगत्’
(गीता ७/५) । अगर जीव असत्को धारण (स्वीकार) न करे तो असत्में रहनेकी
ताकत ही नहीं है । असत् वस्तुकी तो सत्ता ही नहीं है और सत् वस्तुका अभाव
नहीं है‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता
२/१६) । जिसकी सत्ता है ही नहीं, उसकी प्राप्ति कैसे होगी ? असत्की प्राप्ति और सत्की अप्राप्ति असम्भव है । परन्तु सत्-स्वरूप
स्वयंने असत्को सत् मान लिया, जिससे असत्की सत्ता दीखने लग गयी । अतः
केवल माननेसे ही असत्को सत्ता मिली है और न माननेसे वह मिट जायगी । काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकार हमारेमें नहीं हैं । ये
प्रकृतिमें हैं । अगर हम प्रकृतिको स्वीकार न करें तो ये
प्रकृतिमें भी नहीं हैं । प्रकृतिको स्वीकार करते ही ये विकार प्रकृतिमें पैदा हो
जाते हैं । जिस स्थानपर कोई मनुष्य नहीं जाता, वह स्थान (जंगल आदि) बड़ा शुद्ध होता
है और जिस स्थानपर मनुष्य रहते हैं, वहाँ अशुद्धि फैल जाती है । कारण कि मनुष्य ही
अपने सम्बन्धसे उसको अशुद्ध करता है । असत् वस्तुको अपनी मानते ही वह
अशुद्ध हो जाती है और उसको अपना मानना छोड़ते ही सब अशुद्धि मिट जाती है‒‘ममता मल जरि जाइ’ । (मानस ७/११७ क) ।
जब मनुष्य जड़तामें अपनापन कर लेता है, तब वह
जड़ता ही उसको दबा लेती है । जैसे बादल सूर्यसे पैदा होते हैं और सूर्यको ही ढक देते हैं, ऐसे ही दोष आपसे
पैदा होते हैं और आपको ही ढक देते हैं । अगर आप इनको पैदा न करें तो आप
स्वतःस्वभाविक मुक्त हैं । इसीलिये ज्ञान होनेपर फिर मोह नहीं होता‒‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव’ (गीता४/३५);
क्योंकि वास्तवमें मोह है ही नहीं । अगर मोह होता तो वह पुनः हो जाता । |