।। श्रीहरिः ।।

                          


आजकी शुभ तिथि–
   कार्तिक कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०७८,  शनिवार
                             
         विकारोंसे छूटनेका उपाय


यह जीवात्मा परमात्माका साक्षात् अंश है । अतः जैसे परमात्मा सत्यसंकल्प हैं, ऐसे ही यह जीवात्मा भी एक अंशमें सत्यसंकल्प है । जब जीवात्मा अपनेमें राग-द्वेषादि दोषोंकी मान्यता कर लेता है, तब इसमें वे दोष दीखने लग जाते हैं, नहीं तो वे दोष इसमें है नहीं । राग-द्वेष, हर्ष-शोक, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि जितने भी दोष हैं, उनमेंसे कोई-सा भी दोष जीवात्मामें नहीं है । अगर इसमें दोष होते तो इसको ‘चेतन अमल सहज सुखरासी’ नहीं कहते ।

जितने भी विकार है, वे सब प्रकृतिके गुणोंमें ही रहते हैं; परन्तु जीवात्मा गुणोंसे रहित है‒‘निर्गुणत्वात्’ (गीता १३/३१) । प्रकृतिके गुणोंमें ही सात्त्विक, राजस और तामस वृत्तियाँ रहती हैं, जिनका वर्णन गीताके चौदहवें अध्यायमें आया है । स्वयंमें वृत्तियाँ नहीं रहतीं । अगर यह बात ठीक अनुभवमें आ जाय तो मनुष्य तत्काल जीवन्मुक्त हो जाय ! तत्काल जीवन्मुक्त क्यों हो जाय ? कि वास्तवमें यह जीवन्मुक्त ही है । मुक्ति स्वतःसिद्ध है और बन्धन पकड़ा हुआ है, कृत्रिम है । बन्धन न होते हुए भी जीवने बन्धनको स्वीकार कर लिया है । जीवने ही असत्‌को धारण कर रखा है‒‘ययेदं धार्यते जगत्‌’ (गीता ७/५) । अगर जीव असत्‌को धारण (स्वीकार) न करे तो असत्‌में रहनेकी ताकत ही नहीं है ।

असत्‌ वस्तुकी तो सत्ता ही नहीं है और सत्‌ वस्तुका अभाव नहीं है‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २/१६) । जिसकी सत्ता है ही नहीं, उसकी प्राप्ति कैसे होगी ? असत्‌की प्राप्ति और सत्‌की अप्राप्ति असम्भव है । परन्तु सत्‌-स्वरूप स्वयंने असत्‌को सत्‌ मान लिया, जिससे असत्‌की सत्ता दीखने लग गयी । अतः केवल माननेसे ही असत्‌को सत्ता मिली है और न माननेसे वह मिट जायगी ।

काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकार हमारेमें नहीं हैं । ये प्रकृतिमें हैं । अगर हम प्रकृतिको स्वीकार न करें तो ये प्रकृतिमें भी नहीं हैं । प्रकृतिको स्वीकार करते ही ये विकार प्रकृतिमें पैदा हो जाते हैं । जिस स्थानपर कोई मनुष्य नहीं जाता, वह स्थान (जंगल आदि) बड़ा शुद्ध होता है और जिस स्थानपर मनुष्य रहते हैं, वहाँ अशुद्धि फैल जाती है । कारण कि मनुष्य ही अपने सम्बन्धसे उसको अशुद्ध करता है । असत्‌ वस्तुको अपनी मानते ही वह अशुद्ध हो जाती है और उसको अपना मानना छोड़ते ही सब अशुद्धि मिट जाती है‒‘ममता मल जरि जाइ’ । (मानस ७/११७ क)

जब मनुष्य जड़तामें अपनापन कर लेता है, तब वह जड़ता ही उसको दबा लेती है । जैसे बादल सूर्यसे पैदा होते हैं और सूर्यको ही ढक देते हैं, ऐसे ही दोष आपसे पैदा होते हैं और आपको ही ढक देते हैं । अगर आप इनको पैदा न करें तो आप स्वतःस्वभाविक मुक्त हैं । इसीलिये ज्ञान होनेपर फिर मोह नहीं होता‒‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव’ (गीता४/३५); क्योंकि वास्तवमें मोह है ही नहीं । अगर मोह होता तो वह पुनः हो जाता ।