।। श्रीहरिः ।।

                           


आजकी शुभ तिथि–
   कार्तिक कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०७८,  रविवार
                             
         विकारोंसे छूटनेका उपाय


काम, क्रोध, लोभ आदिसे रहित होनेका उपाय है कि ‘ये अपनेमें नहीं हैं’‒ऐसा दृढ़तासे मान लें । ये अपनेमें दिखें, तो भी इनको अपनेमें नहीं मानें; क्योंकि वास्तवमें ये अपनेमें हैं नहीं, केवल भूलसे माने हुए हैं । आप रहते हैं और ये नहीं रहते‒यह आपका अनुभव है । अभी आप हैं, पर अभी काम है क्या ? अभी क्रोध है क्या ? अभी लोभ है क्या ? अगर ये आपमें होते तो जैसे कपड़ेमें रंग रहता है, तो कपड़ा रहता है तो रंग भी रहता है, ऐसे ही ये भी आपमें सदा रहते । ये दोष सदा नहीं रहते‒यह आपका अनुभव है । इससे सिद्ध हुआ कि ये दोष आगन्तुक हैं अर्थात्‌ आने-जानेवाले और अनित्य हैं‒‘आगमापायिनोऽनित्याः’ (गीता २/१४)

आप सत्‌-स्वरूप हैं, इसलिये जब आप अपनेमें काम, क्रोध आदिकी सत्ता मान लेते हैं, तब वे असत्‌ होते हुए भी सत्‌ दीखने लग जाते हैं । जैसे आगमें कोई भी चीज रख दें तो वह चमक उठती है । चाहे ठीकरी हो, चाहे पत्थर हो, चाहे लकड़ी हो, चाहे कोयला हो, आगमें रखनेपर वह चमकने लग जाता है । ऐसे ही आप जिस चीजको अपनेमें स्वीकार करते हैं, वह आपमें (सत्‌-स्वरूपमें) दीखने लग जाती है ।

शरीर असत्‌ है । यह प्रतिक्षण बदलता रहता है । इतनी तेजीसे बदलता है कि इसको उसी रूपमें दो बार कोई देख ही नहीं सकता; क्योंकि एक क्षण पहले शरीर जैसा था, दूसरे क्षणमें वह वैसा नहीं रहता । केवल आपकी भावनासे ही यह सत्‌ (है)-रूपसे दीखता है । यदि यह है तो फिर यह बदलता कैसे है ?

श्रोता‒यदि यह नहीं है तो फिर यह दीखता कैसे है ?

स्वामीजी‒आपने भावना कर ली, इसीलिये दीखता है । एक मार्मिक बात है कि यह शरीर वास्तवमें शरीरको ही दीखता है । स्वयंको शरीर दीखता ही नहीं । आप ही बतायें कि क्या सुषुप्तिमें शरीर दीखता है ? आप इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिसे देखते हैं, तभी यह दीखता है, नहीं तो इसमें खुदमें दीखनेकी ताकत नहीं है । जिस धातुका शरीर है, उसी धातुके नेत्र है, उसी धातुका मन है, उसी धातुकी बुद्धि है, उसी धातुका अहम्‌ है । अहम्‌से रहित होकर देखें तो क्या शरीर दीखेगा ? सुषुप्तिमें अहम्‌ लुप्त हो जाता है,  तो फिर शरीर नहीं दीखता ।

श्रोता‒सुषुप्तिमें अज्ञान छाया रहता है !

स्वामीजी‒जब अज्ञानमें भी इतनी सामर्थ्य है कि शरीर दीखना बन्द हो जाता है, तो क्या ज्ञानमें अज्ञान जितनी भी सामर्थ्य नहीं है ? जब साधक निर्मम-निरहंकार हो जाता है, उसके अज्ञानका नाश हो जाता है, तब शरीरकी सत्ता नहीं दीखती; क्योंकि शरीरमें सामर्थ्य नहीं है दीखनेकी ।