।। श्रीहरिः ।।

                            


आजकी शुभ तिथि–
   कार्तिक कृष्ण पंच, वि.सं.-२०७८,  सोमवार
                             
         विकारोंसे छूटनेका उपाय


श्रोता‒ज्ञान होनेपर शरीर-संसार कैसे दीखते हैं ?

स्वामीजी‒शरीर-संसार ऊपरसे तो वैसे ही दीखते हैं, पर उनमें अस्तित्व-बुद्धि मिट जाती है; जैसे‒दर्पणमें मुख दीखनेपर भी उसमें अस्तित्व-बुद्धि नहीं होती । ज्ञानी महापुरुषको शरीर-संसार जली हुई मूँजकी रस्सीकी तरह अथवा तपे हुए लोहेपर चिपके कागजकी तरह दीखते हैं । जली हुई रस्सी दीखती तो है, पर वह बाँध नहीं सकती । हाथ लगते ही वह बिखर जाती है । ऐसे ही तपे हुए लोहेपर कागजके अक्षर पढ़े तो जा सकते हैं, पर उसको उठाया नहीं जा सकता । ज्ञानीकी दृष्टिमें अन्तःकरणसहित संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अत्यन्त अभाव हो जाता है और परमात्मतत्त्वकी सत्ताका भाव नित्य-निरन्तर जाग्रत्‌ रहता है । जैसे गैसबत्तीके मेंटलमें आग लगते ही वह जल जाता है, पर उस जले हुए मेंटलसे विशेष प्रकाश होता है, ऐसे ही ज्ञानीके जले हुए (सत्तारहित) अन्तःकरणमें ज्ञानका विशेष प्रकाश होता है । उसके आचरणोंमें, वचनोंमें विलक्षणता आ जाती है । उसके द्वारा स्वतः-स्वाभाविक मर्यादित व्यवहार होता है, जो सबके लिये आदर्श होता है और सबका हित करनेवाला होता है ।

आप विचार करें । अगर ज्ञान होनेसे मुक्ति हो जाती है, तो इससे सिद्ध होता है कि मुक्ति स्वतःसिद्ध है, केवल उसका अनुभव हुआ है । ज्ञान होनेसे मुक्ति पैदा नहीं होती । मुक्ति तो सदा ज्यों-की-त्यों है, पर उसकी तरफ दृष्टि न रहनेसे उसका अनुभव नहीं होता था । उसकी तरफ दृष्टि होनेसे अर्थात्‌ ज्ञान होनेसे उसका अनुभव हो जाता है । अतः जिस तत्त्वकी प्राप्ति ज्ञानसे होती है, वह तत्त्व पहलेसे ही विद्यमान होता है । अज्ञानावस्थामें भी स्वरूप ज्यों-का-त्यों ही रहता है, उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता । आप जानें या न जानें, मानें या न मानें, स्वीकार करें या न करें, वह तो रहता ही है । उसकी तरफ दृष्टि डालते ही उसका अनुभव हो जाता है‒

संकर  सहज  सरूपु  सम्हारा ।

लागि समाधि अखंड अपारा ॥

(मानस १/५८/४)

ज्ञान होनेपर तत्त्वमें कुछ भी फर्क नहीं पड़ता । फर्क उस बुद्धिमें पड़ता है, जिसमें अज्ञान है । अगर बुद्धिसे आपका सम्बन्ध ही न रहे तो फिर बुद्धिमें अज्ञान रहे चाहे न रहे, उससे आपका क्या मतलब ? बुद्धिसे आपका सम्बन्ध वास्तवमें है नहीं । आपने ही उसके साथ सम्बन्ध मान रखा है ।

श्रोता‒क्या मुक्ति स्वाभाविक है ?

स्वामीजी—हाँ, मुक्ति स्वाभाविक है । परन्तु यदि आप बन्धनको दृढ़ करेंगे तो फिर मुक्ति स्वाभाविक कैसे होगी ? बन्धन स्वाभाविक नष्ट नहीं होता; क्योंकि आप स्वयं सत्यसंकल्प हैं । अतः जब आप बन्धनको पकड़ते हैं, तब वह बन्धन भी सत्यकी तरह दृढ़ हो जाता है ।

श्रोता‒साधन करनेसे क्या यह बन्धन नष्ट हो जायगा ?

स्वामीजी‒साधन करण-सापेक्ष भी होता है और करण-निरपेक्ष भी । मैंने अभी जो करण-निरपेक्ष साधन बताया है, उसके समान श्रेष्ठ कोई साधन है ही नहीं, हुआ ही नहीं, होगा ही नहीं । दूसरे जितने भी करण-सापेक्ष साधन करोगे, वे सब प्रकृतिकी सहायतासे ही करोगे । उनमें असत्‌का अर्थात्‌ मन, बुद्धि आदिका आश्रय लेना ही पड़ेगा । जिनके द्वारा साधन करोगे, उन मन, बुद्धि आदिका त्याग कैसे कर सकोगे ? उनके साथ अपना सम्बन्ध न मानना करण-निरपेक्ष साधन है, जिससे बन्धन तत्काल नष्ट हो जाता है ।

निर्विकार स्वरूप ज्यों-का-त्यों विद्यमान था और विद्यमान रहेगा । केवल उसकी तरफ दृष्टि न रहनेसे वह विद्यमान (प्राप्त) होता हुआ भी अप्राप्तकी तरह दीख रहा है । उसकी तरफ दृष्टि न जानेका कारण है‒असत्‌ (उत्पत्ति-विनाशशील) वस्तुको महत्त्व देना । जितने भी विकार हैं, वे सब असत्‌ वस्तुको महत्त्व देनेसे ही पैदा होते हैं । वास्तवमें असत्‌ वस्तुका कोई महत्त्व है ही नहीं । जो क्षणभरके लिये भी टिके नहीं, उसका महत्त्व कैसा ? केवल अविचारसे ही उसका महत्त्व प्रतीत होता है । अगर साधक विचारके द्वारा असत्‌में महत्त्व-बुद्धि मिटा दे तो निर्विकार स्वरूपमें स्वतः स्थितिका अनुभव हो जायगा ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे