।। श्रीहरिः ।।

                              


आजकी शुभ तिथि–
   कार्तिक कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०७८,  बुधवार
                             
            सत्संग सुननेकी विद्या


कई सज्जन प्रश्न किया करते हैं कि मन कैसे लगे ? अतः मन लगानेकी एक सुगम युक्ति बतायी जाती है । चुपचाप बैठ जायँ और मनसे भगवन्नामका जप करें तथा मनसे ही उसकी गिनती करें । हाथमें न तो माला रखें, न अँगुलियोंसे गिनें और न मुँहसे ही बोलें, केवल मनसे ही गिनती करें । इस प्रकार कम-से-कम एक माला (१०८ बार) भगवन्नामका जप करें । गिनतीमें चूकें नहीं । अगर चूक जायँ तो पुनः एकसे शुरू करें । ऐसा करके देखें तो बड़ा लाभ होगा । कुछ लोग केवल तमाशेकी तरह पूछ लेते हैं कि मन कैसे लगे, पर जो उपाय बताया जाता है, उसको करते ही नहीं ! किसी व्यक्तिने एक सन्तसे पूछा कि महाराज ! मन कैसे लगे ? तो उन्होंने पूछा कि तुमने यह प्रश्न मेरेसे ही किया है या पहले और भी किसीसे किया था ? वह बोला कि यह तो मेरेको याद नहीं है । सन्त बोले‒तो फिर यही दशा मेरी भी होगी ! मेरेसे उपाय पूछकर मेरी फजीती ही करोगे !

कई भाई-बहन सत्संगके समय माला फेरते रहते हैं अथवा कापीमें भगवन्नाम लिखते रहते हैं । अगर तत्परतासे मन लगाकर सत्संग सुनते हों, पर पूर्वाभ्यासके कारण (स्वभाववश) स्वतः जप होता हो तो कोई बाधा नहीं आती । परन्तु ध्यान एक तरफ ही रहेगा, दो तरफ नहीं । जो कभी सत्संगमें ध्यान रखता है और कभी मालामें ध्यान रखता है, उसको सत्संग सुनना आता ही नहीं । सत्संगके समय जिसका मन और जगह चला जाता है, घर आदिकी बातें याद आती रहती हैं, वह ठीक तरहसे सत्संग सुन ही नहीं सकता । स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश)-में गंगाजीके तटपर वटवृक्षके नीचे सत्संग हो रहा था । वहाँ मैंने भाई-बहनोंसे कहा कि आपलोग ध्यान देकर सुनोगे तो एक ही बात सुन सकोगे, दो बात नहीं सुन सकोगे । मैंने उदाहरण दिया कि अभी गंगाजीका शब्द हो रहा है न ? वे बोले कि हाँ, हो रहा है । मैंने पूछा कि इतनी देरसे क्या आप गंगाजीका शब्द सुन रहे थे ? वे बोले‒नहीं सुन रहे थे । क्यों नहीं सुन रहे थे ? कि मन सत्संग सुननेमें लगा था । कान भी थे और शब्द भी था, पर मन उस तरफ न रहनेसे वह सुनाई नहीं देता था । इसी तरह श्रोताका मन दूसरी तरफ रहेगा तो सत्संग नहीं सुन सकेगा । जैसे सत्संग सुनते समय अपने-आप श्वास चलते हैं, नब्ज चलती है, उसमें मन नहीं लगाना पड़ता, ऐसे ही बिना मन लगाये अपने-आप जप होता हो तो सत्संग सुना जा सकता है । परन्तु सत्संग सुनते समय कोई जप करना चाहे तो नहीं हो सकता और लिखना तो हो ही नहीं सकता । मेरे विचारसे जिनको घरमें राम-राम लिखनेके लिये समय नहीं मिलता, घरमें काम-धन्धा रहता है, वे सोचते हैं कि यहाँ निकम्मे बैठे हैं, कोई काम तो है नहीं, इसलिये यहाँ राम-रामकी कापी भर लें ! तात्पर्य यह निकला कि जो सत्संगको फालतू समझते हैं, वे वहाँ बैठकर कापी भरते हैं । ऐसे लोग सत्संग नहीं सुन सकते ।

ध्यानपूर्वक सत्संग न सुननेसे मन संसारका चिन्तन करने लगता है, जिससे सात्त्विकी वृत्ति नहीं रहती, प्रत्युत राजसी वृत्ति आ जाती है । राजसी वृत्ति आनेसे फिर तत्काल तामसी वृत्ति आ जाती है, जिससे श्रोताको नींद आ जाती है । तात्पर्य है कि मन लगाकर सत्संग न सुननेसे सात्त्विकी वृत्तिसे सीधे तामसी वृत्ति (नींद) नहीं आती, प्रत्युत क्रमसे सात्त्विकीसे राजसी और राजसीसे तामसी वृत्ति पैदा होती है ।