स्वयं
हमने ही भगवान्की प्राप्तिमें आड़ लगा रखी है कि वे वैरागी-त्यागी पुरुषोंको मिलते हैं, हम गृहस्थियोंको कैसे मिलेंगे ? वे
जंगलमें रहनेवालोंको मिलते हैं, हम शहरमें रहनेवालोंको कैसे मिलेंगे ? कोई अच्छे
गुरु नहीं मिलेंगे तो भगवान् कैसे मिलेंगे ? कोई
बढ़िया साधन नहीं करेंगे तो भगवान् कैसे मिलेंगे ? आजकल भगवत्प्राप्तिका मार्ग
बतलानेवाले कोई अच्छे महात्मा भी नहीं रहे तो हमें भगवान् कैसे मिलेंगे ? हमारे
भाग्यमें ही नहीं हैं तो भगवान् कैसे मिलेंगे ? हम तो अधिकारी ही नहीं हैं तो
भगवान् कैसे मिलेंगे ? हमारे कर्म ही ऐसे नहीं हैं तो भगवान् हमें कैसे मिलेंगे
?‒इस प्रकार न जाने कितनी आड़ें हमने स्वयं ही लगा रखी हैं । भगवान्को हमने इन आड़ोंके पहाड़ोंके ही नीचे दबा दिया है !
ऐसी स्थितिमें बेचारे भगवान् क्या करें ? हमें कैसे मिलें ? पार्वतीने
‘तप करके ही शिवजी हमें मिलेंगे’, ऐसा भाव रखकर स्वयं ही शिवजीकी प्राप्तिमें आड़
लगा दी थी; इसी कारण उन्हें तप करना पड़ा[*] । तपस्याका भाव भीतर रहनेके कारण तप करनेसे ही शिवजी मिले
। इसी प्रकार भावके कारण ही ध्रुवको छः मासके तपके बाद भगवान् मिले । भगवान्के मिलनेमें वस्तुतः कोई देर नहीं लगी । जिस समय ऐसा
भाव हुआ कि अब मैं भगवान्के बिना रह नहीं सकता, उसी समय भगवान् मिल गये । किसी
योग्यताके बदलेमें भगवान् मिलेंगे, यह बिलकुल गलत धारणा है । सिद्धान्त है कि किसी मूल्यके बदलेमें जो वस्तु
प्राप्त होती है, वह वस्तुतः उस मूल्यसे कम मूल्यकी होती है । यदि दूकानदार किसी वस्तुको १०० रुपयेमें बेचता है तो
निश्चय ही दूकानदारने उस वस्तुको १०० रुपयेसे कम मूल्यमें ख़रीदा होगा । इसी प्रकार
यदि हम ऐसा मानते हैं कि विशेष योग्यता अथवा साधन, यज्ञ-दानादि बड़े-बड़े कर्मोंसे
भगवान् मिलते हैं तो भगवान् उनसे कम मूल्यमें ही हुए ! परन्तु भगवान् उनसे कम
मूल्यके नहीं हैं[†], इसलिये वे किसी साधन-सम्पत्तिसे खरीदे नहीं जा सकते[‡] । यदि किसी मूल्यके बदलेमें भगवान् मिलते हैं तो ऐसे
भगवान् मिलकर भी हमें क्या निहाल करेंगे ? क्योंकि उनसे बढ़िया (अधिक मूल्यकी)
वस्तुएँ, योग्यता, तप-दानादि तो हमारे पास पहलेसे ही हैं ! [*] पार्वतीके
मनमें पहले ही यह भाव हो गया था कि शिवजीकी प्राप्ति कठिन है‒ उपजेउ सिव पद कमल सनेहू । मिलन कठिन मन भा संदेहू
॥ (मानस
१/६८/३) बादमें
देवर्षि नारदने कह दिया कि तप करनेसे ही शिवजी मिल सकते हैं‒ दुराराध्य पै अहहिं
महेसू । आसुतोष पुनि किएँ कलेसू ॥ जौ तपु करै कुमारि तुम्हारी । भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी ॥ (१/७०/२-३) माता-पितासे
भी पार्वतीको तप करनेकी ही प्रेरणा मिली‒ अब जौं तुम्हहि सूता पर नेहू । तौं
अस जाइ सिखावनु देहू ॥ करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू । आन उपायँ न
मिटहि कलेसू ॥ (१/७२/१) स्वप्नमें भी
पार्वतीको तप करनेकी ही शिक्षा मिली‒ करहि जाइ तपु सैलकुमारी । नारद कहा सो सत्य बिचारी ॥ मातु पितहि पुनि यह मत भावा । तपु सुखप्रद दुख
दोष नसावा ॥ (१/७३/१) इन्हीं सब कारणोंसे पार्वतीके मनमें यह भाव दृढ़ हो गया कि
तप करनेसे ही शिवजी मिलेंगे, अन्यथा नहीं । [†] न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव
॥ (गीता ११/४३) ‘हे अनुपम प्रभाववाले ! तीनों लोकोंमें आपके
समान भी दूसरा कोई नहीं हैं फिर अधिक तो कैसे हो सकता है ?’ [‡] नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन
न चेज्यया । शक्य एवंविधो
द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ॥ (गीता ११/५३) ‘हे अर्जुन ! जिस प्रकार तुमने मुझको देखा है, इस प्रकार चतुर्भुजरूपवाला मैं न वेदोंसे, न तपसे, न दानसे, न यज्ञसे ही देखा जा सकता हूँ ।’ |