।। श्रीहरिः ।।

                                     


आजकी शुभ तिथि–
  कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०७८, बुधवार
                             

भगवत्प्राप्तिके लिये 

भविष्यकी अपेक्षा नहीं


स्वयं हमने ही भगवान्‌की प्राप्तिमें आड़ लगा रखी है कि वे वैरागी-त्यागी पुरुषोंको मिलते हैं, हम गृहस्थियोंको कैसे मिलेंगे ? वे जंगलमें रहनेवालोंको मिलते हैं, हम शहरमें रहनेवालोंको कैसे मिलेंगे ? कोई अच्छे गुरु नहीं मिलेंगे तो भगवान्‌ कैसे मिलेंगे ? कोई बढ़िया साधन नहीं करेंगे तो भगवान्‌ कैसे मिलेंगे ? आजकल भगवत्प्राप्तिका मार्ग बतलानेवाले कोई अच्छे महात्मा भी नहीं रहे तो हमें भगवान्‌ कैसे मिलेंगे ? हमारे भाग्यमें ही नहीं हैं तो भगवान्‌ कैसे मिलेंगे ? हम तो अधिकारी ही नहीं हैं तो भगवान्‌ कैसे मिलेंगे ? हमारे कर्म ही ऐसे नहीं हैं तो भगवान्‌ हमें कैसे मिलेंगे ?‒इस प्रकार न जाने कितनी आड़ें हमने स्वयं ही लगा रखी हैं । भगवान्‌को हमने इन आड़ोंके पहाड़ोंके ही नीचे दबा दिया है ! ऐसी स्थितिमें बेचारे भगवान्‌ क्या करें ? हमें कैसे मिलें ?

पार्वतीने ‘तप करके ही शिवजी हमें मिलेंगे’, ऐसा भाव रखकर स्वयं ही शिवजीकी प्राप्तिमें आड़ लगा दी थी; इसी कारण उन्हें तप करना पड़ा[*] । तपस्याका भाव भीतर रहनेके कारण तप करनेसे ही शिवजी मिले । इसी प्रकार भावके कारण ही ध्रुवको छः मासके तपके बाद भगवान्‌ मिले । भगवान्‌के मिलनेमें वस्तुतः कोई देर नहीं लगी । जिस समय ऐसा भाव हुआ कि अब मैं भगवान्‌के बिना रह नहीं सकता, उसी समय भगवान्‌ मिल गये ।

किसी योग्यताके बदलेमें भगवान्‌ मिलेंगे, यह बिलकुल गलत धारणा है । सिद्धान्त है कि किसी मूल्यके बदलेमें जो वस्तु प्राप्त होती है, वह वस्तुतः उस मूल्यसे कम मूल्यकी होती है । यदि दूकानदार किसी वस्तुको १०० रुपयेमें बेचता है तो निश्चय ही दूकानदारने उस वस्तुको १०० रुपयेसे कम मूल्यमें ख़रीदा होगा । इसी प्रकार यदि हम ऐसा मानते हैं कि विशेष योग्यता अथवा साधन, यज्ञ-दानादि बड़े-बड़े कर्मोंसे भगवान्‌ मिलते हैं तो भगवान्‌ उनसे कम मूल्यमें ही हुए ! परन्तु भगवान्‌ उनसे कम मूल्यके नहीं हैं[†], इसलिये वे किसी साधन-सम्पत्तिसे खरीदे नहीं जा सकते[‡] । यदि किसी मूल्यके बदलेमें भगवान्‌ मिलते हैं तो ऐसे भगवान्‌ मिलकर भी हमें क्या निहाल करेंगे ? क्योंकि उनसे बढ़िया (अधिक मूल्यकी) वस्तुएँ, योग्यता, तप-दानादि तो हमारे पास पहलेसे ही हैं !



[*] पार्वतीके मनमें पहले ही यह भाव हो गया था कि शिवजीकी प्राप्ति कठिन है‒

उपजेउ सिव पद कमल सनेहू । मिलन कठिन मन भा संदेहू ॥

(मानस १/६८/३)

बादमें देवर्षि नारदने कह दिया कि तप करनेसे ही शिवजी मिल सकते हैं‒

दुराराध्य  पै  अहहिं  महेसू ।  आसुतोष  पुनि  किएँ  कलेसू ॥

जौ तपु करै कुमारि तुम्हारी । भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी ॥

(१/७०/२-३)

माता-पितासे भी पार्वतीको तप करनेकी ही प्रेरणा मिली‒

अब जौं तुम्हहि सूता पर नेहू ।    तौं  अस जाइ सिखावनु देहू ॥

करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू । आन उपायँ न मिटहि कलेसू ॥

(१/७२/१)

स्वप्नमें भी पार्वतीको तप करनेकी ही शिक्षा मिली‒

करहि जाइ तपु सैलकुमारी ।   नारद  कहा  सो  सत्य  बिचारी ॥

मातु पितहि पुनि यह मत भावा । तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा ॥

(१/७३/१)

इन्हीं सब कारणोंसे पार्वतीके मनमें यह भाव दृढ़ हो गया कि तप करनेसे ही शिवजी मिलेंगे, अन्यथा नहीं ।

[†] न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥

(गीता ११/४३)

‘हे अनुपम प्रभाववाले ! तीनों लोकोंमें आपके समान भी दूसरा कोई नहीं हैं फिर अधिक तो कैसे हो सकता है ?’

[‡] नाहं वेदैर्न तपसा   दानेन  न चेज्यया ।

  शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ॥

(गीता ११/५३)

‘हे अर्जुन ! जिस प्रकार तुमने मुझको देखा है, इस प्रकार चतुर्भुजरूपवाला मैं न वेदोंसे, न तपसे, न दानसे, न यज्ञसे ही देखा जा सकता हूँ ।’