दीपावली पर्वपर सबके लिये
शुभकामना कि हमारा जीवन भगवान्के प्रेमसे जगमगा उठें ! हम जैसा चाहते हैं, वैसे ही भगवान्
हमें मिलते हैं । दो भक्त थे । एक भगवान् श्रीरामका भक्त था, दूसरा भगवान्
श्रीकृष्णका । दोनों अपने-अपने भगवान् (इष्टदेव)-को श्रेष्ठ बतलाते थे । एक बार
वे जंगलमें गये । वहाँ दोनों भक्त अपने-अपने भगवान्को पुकारने लगे । उनका भाव यह
था कि दोनोंमेंसे जो भगवान् शीघ्र आ जाय, वही श्रेष्ठ है । भगवान् श्रीकृष्ण
शीघ्र प्रकट हो गये । इससे उनके भक्तने उन्हें श्रेष्ठ बतला दिया । थोड़ी देरमें
भगवान् श्रीराम प्रकट हो गये । इसपर उनके भक्तने कहा कि आपने मुझे हरा दिया;
भगवान् श्रीकृष्ण तो पहले आ गये, पर आप देरसे आये जिससे मेरा अपमान हो गया !
भगवान् श्रीरामने अपने भक्तसे पूछा‒‘तूने मुझे किस रूपमें याद किया था ?’ भक्त
बोला‒‘राजाधिराजके रूपमें ।’ तब भगवान् श्रीराम बोले‒‘बिना सवारीके राजाधिराज
कैसे आ जायँगे !’ कृष्ण-भक्तसे पूछा गया तो उसने कहा‒‘मैंने तो अपने भगवान्को गौ
चरानेवालेके रूपमें याद किया था कि वे यहीं जंगलमें गाय चराते होंगे ।’ इसीलिये वे
पुकारते ही तुरन्त प्रकट हो गये । दुःशासनके द्वारा भरी सभामें चीर
खींचे जानेके कारण द्रौपदीने ‘द्वारकावासिन् कृष्ण’
कहकर भगवान्को पुकारा, तो भगवान्के आनेमें थोड़ी देर लगी । इसपर भगवान्ने
द्रौपदीसे कहा कि तूने मुझे ‘द्वारकावासिन्’
(अर्थात् द्वारकामें रहनेवाले) कहकर पुकारा, इसलिये मुझे द्वारका जाकर फिर वहाँसे
आना पड़ा । यदि तू कहती कि यहींसे आ जाओ तो मैं यहींसे प्रकट हो जाता । भगवान् सब जगह हैं । जहाँ हम हैं, वहीं भगवान् भी हैं ।
भक्त जहाँसे भगवान्को बुलाता है, वहींसे भगवान् आते हैं । भक्तिकी भावनाके अनुसार ही भगवान् प्रकट होते हैं । जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती । प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती ॥ **
** ** हरि ब्यापक सर्वत्र समाना । प्रेम तें प्रगट होहिं मैं
जाना ॥ देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं । कहहु सो कहाँ जहाँ
प्रभु नाहीं ॥ (मानस १/१८५/२-३) जब भगवान् श्रीकृष्ण गोपियोंके बीचसे
अंतर्धान हो गये तो गोपियाँ पुकारने लगीं‒ दयित दृश्यतां दिक्षु तावकास्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥ (श्रीमद्भागवत १०/३१/१) ‘हे प्रिय ! तुममें
प्राण समर्पित कर चुकनेवाली हम सब तुम्हारी गोपियाँ तुम्हें सब ओर ढूँढ़ रही हैं,
अतएव अब तुम तुरन्त दिख जाओ ।’ गोपियोंकी पुकार सुनकर भगवान् उनके
बीचमें ही प्रकट हो गये‒ तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः । पीताम्बरधरः स्रग्वी
साक्षान्मन्मथमन्मथः ॥ (श्रीमद्भागवत १० । ३२ । २) ‘ठीक उसी समय उनके
बीचोंबीच भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हो गये । उनका मुखकमल मन्द-मन्द मुसकानसे खिला
हुआ था, गलेमें वनमाला थी, पीताम्बर धारण किये हुए थे । उनका यह रूप क्या था, सबके
मनको मथ डालनेवाले कामदेवके मनको भी मथनेवाला था ।’
इस प्रकार गोपियोंने ‘प्यारे ! दीख
जाओ’ (दयित दृश्यताम्)‒ऐसा कहा तो भगवान् वहीं
दीख गये । यदि वे कहतीं कि कहींसे आ जाओ, तो भगवान् वहींसे आते । |