।। श्रीहरिः ।।

                                       


आजकी शुभ तिथि–
  कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०७८, शुक्रवार
                      

भगवत्प्राप्तिके लिये 

भविष्यकी अपेक्षा नहीं


भगवान्‌की प्राप्ति साधनके द्वारा होती है‒यह बात भी यद्यपि सच्ची है, परन्तु इस बातको मानकर चलनेसे साधकको भगवत्प्राप्ति देरसे होती है । यदि साधकका ऐसा भाव हो जाय कि मुझे तो भगवान्‌ अभी मिलेंगे, तो उसे भगवान्‌ अभी ही मिल जायँगे । वे यह नहीं देखेंगे कि भक्त कैसा है, कैसा नहीं है ? काँटोंवाले वृक्ष हों, घास हो, खेती हो, पहाड़ हो, रेगिस्तान हो या समुद्र हो; वर्षा सबपर समानरूपसे बरसती है । वर्षा यह नहीं देखती कि कहाँ पानीकी आवश्यकता है और कहाँ नहीं ? इसी प्रकार जब भगवान्‌ कृपा करते हैं तो यह नहीं देखते कि यह पापी है या पुण्यात्मा ? अच्छा है या बुरा ? वे सब जगह बरस जाते अर्थात्‌ प्रकट हो जाते हैं[*]

पापी-से-पापी पुरुषको भी भगवान्‌ मिल सकते हैं (गीता ९/३०) । सदन कसाई और डाकुओंको भी भगवान्‌ मिल गये थे ! भगवान्‌ तो सर्वदा सर्वत्र विद्यमान हैं, केवल भावकी आवश्यकता है । अन्तःकरणके अशुद्ध होनेपर वैसा भाव नहीं बनता, यह बात ठीक होते हुए भी वस्तुतः साधकके लिये बाधक है । शास्त्रोंमें पतिव्रता स्त्रीकी बड़ी महिमा गायी गयी है कि भगवान्‌ भी उसके वशमें हो जाते हैं । यदि कोई कहें कि हममें पातिव्रत-भाव नहीं बन सकता, तो यह उसकी भूल है । पापी-से-पापी पुरुषोंकी स्त्रियाँ पतिव्रता हुई हैं और श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ पुरुषोंकी भी । भगवान्‌ श्रीरामकी पत्नी सीताजी भी पतिव्रता थीं और राक्षसराज रावणकी पत्नी मन्दोदरी भी । ऐसा नहीं कि श्रीरामकी पत्नी तो पतिव्रता हो सकती है, पर रावणकी पत्नी नहीं । पातिव्रत-धर्मका पालन करनेके कारण ही मन्दोदरी तो भगवान्‌ श्रीरामको तत्त्वसे जानती थी, परन्तु रावण नहीं जानता था (द्रष्टव्य‒मानस, लंका१५-१६) ।

वर्तमान युग (कलियुग)-में तो भगवान्‌ सुगमतासे मिलते हैं; क्योंकि अब उनके ग्राहक बहुत कम हैं । ग्राहक बहुत कम हों तो माल सस्ता मिलता है; क्योंकि तब बेचनेवालेको गरज होती है । इसलिये ऐसा भाव नहीं रखना चाहिये कि इस घोर कलियुगमें भगवान्‌ इतनी सुगमतासे कैसे मिलेंगे ?

अपना दृढ़ विचार कर लें कि चाहें दुःख आये या सुख, अनुकूलता आये या प्रतिकूलता, हमें तो भगवान्‌को प्राप्त करना ही है । यदि हम पहले अपने अन्तःकरणको शुद्ध करनेमें लग जायँगे तो भगवत्प्राप्तिमें बहुत देर लगेगी । हमारे उद्योग करनेकी अपेक्षा भगवान्‌की अनन्त अपार कृपाशक्ति हमें बहुत शीघ्र शुद्ध कर देगी । बच्चा कीचड़से लिपटा भी हो, यदि माँकी गोदमें चला जाय तो माँ स्वयं ही उसे साफ कर देती है ।



[*] आदि शंकराचार्यजीने कहा है‒

अयमुत्तमोऽयमधमो   जात्या  रूपेण   सम्पदा वयसा ।

श्‍लाघ्योऽश्‍लाघ्यो वेत्थं  न  वेत्ति  भगवाननुग्रहावसरे ॥

अन्तःस्वभावभोक्ता       ततोऽन्तरात्मा       महामेघः ।

खदिरश्‍चम्पक   इव   वा    प्रवर्षणं   कि   विचारयति ॥

(प्रबोधसुधाकर २५२-२५३)

‘किसीपर कृपा करते समय भगवान्‌ ऐसा विचार नहीं करते कि यह जाति, रूप, धन और आयुसे उत्तम है या अधम ? स्तुत्य है या निन्द्य ? यह अन्तरात्मा (श्रीकृष्ण)-रूपी महामेघ आन्तरिक भावोंका भोक्ता है; मेघ क्या वर्षाके समय इस बातका विचार करता है कि यह खदिर (खैर) है अथवा चम्पक (चंपा) ?’