एक राजा सायंकाल महलकी
छतपर टहल रहे थे । सहसा उनकी दृष्टि नीचे बाजारमें घूमते हुए एक सन्तपर पड़ी
। सन्त अपनी मस्तीमें ऐसे चल रहे थे मानो उनकी दृष्टिमें संसार है ही नहीं । राजा
अच्छे संस्कारवाले पुरुष थे । उन्होंने अपने आदमियोंको उन सन्तको तत्काल ऊपर ले
आनेकी आज्ञा दी । आज्ञा पाते ही राजपुरुषोंने ऊपरसे ही रस्से लटकाकर उन सन्तको
(रस्सेमें फँसाकर) ऊपर खिंच लिया । इस कार्यके लिये राजाने उन सन्तसे क्षमा माँगी
और कहा कि एक प्रश्नका उत्तर पानेके लिये ही मैंने आपको कष्ट दिया । प्रश्न यह है
कि भगवान् शीघ्र कैसे मिलें ? सन्तने कहा‒‘राजन ! इस बातको तुम जानते ही हो ।’
राजाने पूछा‒‘कैसे ?’ सन्त बोले‒‘यदि मेरे मनमें तुमसे मिलनेका विचार आता तो कई
अड़चनें आतीं और बहुत देर लगती । पता नहीं मिलना सम्भव भी होता या नहीं । पर जब
तुम्हारे मनमें मुझसे मिलनेका विचार आया, तब कितनी देर लगी ? राजन ! इसी प्रकार यदि भगवान्के मनमें हमसे मिलनेका विचार आ
जाय तो फिर उनके मिलनेमें देर नहीं लगेगी ।’ राजाने पूछा‒‘भगवान्के मनमें
मुझसे मिलनेका विचार कैसे आ जाय ?’ सन्त बोले‒‘तुम्हारे मनमें मुझसे मिलनेका विचार
कैसे आया ?’ राजाने कहा‒‘जब मैंने देखा कि आप एक ही धुनमें चले जा रहे हैं और
सड़क, बाजार, दूकानें, मकान, मनुष्य आदि किसीकी भी तरफ आपका ध्यान नहीं है, तब
मेरे मनमें आपसे मिलनेका विचार आया ।’ सन्त बोले‒‘राजन !
ऐसे ही तुम एक ही धुनमें भगवान्की तरफ लग जाओ, अन्य किसीकी भी तरफ मत देखो, उनके
बिना रह न सको, तो भगवान्के मनमें तुमसे मिलनेका विचार आ जायगा और वे तुरन्त मिल
जायँगे ।’ भगवान् ही हमारे हैं, दूसरा कोई हमारा है ही नहीं । भगवान् कहते हैं‒ सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः (गीता १५/१५) ‘मैं सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित हूँ
।’ मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना । (गीता ९/४) ‘मुझ निराकार परमात्मासे यह जगत् (जलसे
बर्फके सदृश्य) परिपूर्ण है ।’ भगवान् हृदयमें ही नहीं, अपितु दीखनेवाले समस्त संसारके
कण-कणमें विद्यमान हैं । ऐसे सर्वत्र विद्यमान परमात्माको जब हम सच्चे हृदयसे
देखना चाहेंगे, तभी वे दीखेंगे । यदि हम संसारको देखना चाहेंगे तो भगवान् बीचमें नहीं
आयेंगे, संसार ही दिखेगा । हम संसारको देखना नहीं चाहते,
उससे हमें कुछ भी नहीं लेना है, न उसमें राग करना है न द्वेष, हमें तो केवल भगवान्से
प्रयोजन है‒इस भावसे हम एक भगवान्से ही घनिष्ठता कर लें । भगवान् हमारी बात
सुनें या न सुनें, मानें या न मानें, हमें अपना लें या ठुकरा दें‒इसकी कोई परवाह न
करते हुए हम भगवान्से अपना अटूट सम्बन्ध (जो कि नित्य है) जोड़ लें[*] । जैसे माता पार्वतीने कहा था‒ जन्म कोटि लगि रगर हमारी । बरउँ संभु
न ता रहउँ कुआरी ॥ तजउँ न नारद कर उपदेसू ।
आप कहहिं सत बार महेसू ॥ (मानस
१/८१/३) पार्वतीजीके मनमें यह भाव था कि शिवजीमें ऐसी शक्ति ही नहीं
है कि वे मुझे स्वीकार न करें । इसी प्रकार हम सबका
सम्बन्ध भगवान्के साथ है । हम भगवान्से विमुख भले ही हो जायँ, पर भगवान् हमसे
विमुख कभी हुए नहीं, हो सकते नहीं । हमारा त्याग करनेकी उनमें शक्ति नहीं है ।
[*] वस्तुतः यद्यपि भगवान्के साथ हमारा सदासे ही अटूट सम्बन्ध
है, तथापि भगवान्से विमुख हो जानेके कारण हमें उस सम्बन्धका अनुभव नहीं होता । |