।। श्रीहरिः ।।

                                         


आजकी शुभ तिथि–
  कार्तिक शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७८, रविवार
                      

भगवत्प्राप्तिके लिये 

भविष्यकी अपेक्षा नहीं


बच्चा खेलना छोड़ दे और रोने लग जाय तो माँको अपना सब काम छोड़कर उसके पास आना पड़ता है और उसे गोदमें बैठाकर दुलारना पड़ता है; परन्तु यदि बच्चा खेलनेमें लगा रहे तो माँ निश्चिन्त रहती है । इसी प्रकार यदि हम भगवान्‌के लिये व्याकुल न होकर सांसारिक वस्तुओंमें ही प्रसन्न रहते हों तो भगवान्‌ निश्चिन्त रहते हैं और हमसे मिलने नहीं आते । यदि बच्चा लगातार रोने लग जाय और माँके बिना किसी भी वस्तु (खिलौने आदि)-से प्रसन्न न हो तो घरके सभी लोग बच्चेके पक्षमें हो जाते हैं और उसकी माँको कहते हैं‒‘बच्चा रो रहा है और तुम काममें लगी हो ! आग लगे तुम्हारे कामको ! शीघ्र बच्चेको गोदमें ले लो ।’ उस समय माँ कितना ही आवश्यक कार्य क्यों न कर रही हो, बच्चेके रोनेके आगे उस कार्यका कोई मूल्य नहीं रहता । इसी प्रकार हम एकमात्र भगवान्‌के लिये रोने लग जायँ तो भगवद्धामके सब सन्तजन हमारे पक्षमें हो जायँ ! वे सभी कहने लग जायँ‒ ‘महाराज ! बच्चा रो रहा है; आप मिलनेमें देर क्यों कर रहे हैं ?’ फिर भगवान्‌के आनेमें कोई देर नहीं लगती । हाँ, जब बच्चा खिलौनोंसे खेल भी रहा हो और ऊपरसे ऊँ...ऊँ...भी कर रहा हो, तब उसे माँ गोदमें नहीं लेती । इसी प्रकार हम सांसारिक खिलौनोंसे भी खेलते हों और रोनेका ढोंग भी करते हों, तब भगवान्‌ नहीं आते । वे हमारे आन्तरिक भावको देखते हैं, क्रियाको नहीं । मान-आदर, सुख-आराम, धन-सम्पत्ति, सिद्धियाँ आदि सब सांसारिक खिलौने हैं । माँकी गोद, उसका प्यार, खिलौने आदि सब कुछ बच्चेके लिये ही होते हैं । ऐसे ही भगवान्‌की गोद, उनका प्यार तथा उनके पास जो भी सामग्री है, सब भक्तके लिये ही होती है । भगवान्‌के लिये भक्तसे बढ़कर कुछ भी नहीं है । यदि हम किसी भी वस्तुमें प्रसन्न न होकर भगवान्‌को पुकारने लगें तो वे तत्काल आ जायँ । इसमें भविष्यकी क्या बात है ? माँ बच्चेकी योग्यताको देखकर उसके पास नहीं आती । वह यह नहीं देखती कि बच्चा सुन्दर है, विद्वान्‌ है या धनवान्‌ है । बच्चेमें माँको बुलानेकी यही एक योग्यता है कि वह केवल माँको चाहता है और माँके सिवा दूसरी किसी भी वस्तुसे प्रसन्न नहीं होता ।

भगवान्‌के साथ हमारा सम्बन्ध स्वतन्त्रतासे, स्वाभाविक है । मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर आदि सब पदार्थ निरन्तर बहे जा रहे हैं । उनके साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है । भगवान्‌ ही हमारे हैं । बच्चेमें कोई योग्यता, विद्वत्ता, शूरवीरता आदि नहीं होती, केवल उसमें ‘माँ मेरी है’‒ऐसा माँमें मेरापन होता है । इस मेरापनमें बड़ी भारी शक्ति है, जो भगवान्‌को भी खींच सकती है । इसीके कारण प्रह्लादने पत्थरसे भी भगवान्‌को निकाल लिया‒

प्रेम बदौं प्रहलादहिको, जिन पाहनतें परमेस्वरु काढ़े ॥

(कवितावली १२७)

संसारका हमसे प्रतिक्षण वियोग हो रहा है । शरीर, कुटुम्ब, धन-सम्पत्ति आदि सब पदार्थ पहले नहीं थे और बादमें भी नहीं रहेंगे । दृश्यमात्र निरन्तर अदर्शनको प्राप्त होता चला जा रहा है । कोई पदार्थ ६० वर्षतक रहनेवाला हो तो एक वर्ष बीत जानेपर वह ५९ वर्षका ही रहेगा; क्योंकि वह निरन्तर नाशकी ओर जा रहा है । हम नहीं रहनेवाले सांसारिक पदार्थोंको अपना मानते हैं और सदा रहनेवाले परमात्माको अपना नहीं मानते, यह बड़ी भारी भूल हैं । भगवान्‌ वर्तमानमें हैं और हमारे हैं‒इस बातपर हम दृढ़तापूर्वक डट जायँ, तो भगवान्‌ वर्तमानमें ही मिल जायँगे । केवल उत्कट अभिलाषा[*] होनेकी देर है, भगवान्‌के मिलनेमें देर नहीं । अपने भावके अनुसार चाहे आज भगवान्‌को प्राप्त कर लो, चाहे भविष्यमें‒वर्षों या जन्मोंके बाद !

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग’ पुस्तकसे



[*] भगवत्प्राप्तिकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत्‌ करनेका उपाय है‒सम्पूर्ण सांसारिक इच्छाओंका त्याग और दूसरे हमसे जो न्याययुक्त इच्छा करें, उसे यथाशक्ति पूरी कर देना ।