बच्चा खेलना छोड़ दे और रोने लग जाय तो माँको अपना सब काम
छोड़कर उसके पास आना पड़ता है और उसे गोदमें बैठाकर दुलारना पड़ता है; परन्तु यदि
बच्चा खेलनेमें लगा रहे तो माँ निश्चिन्त रहती है । इसी
प्रकार यदि हम भगवान्के लिये व्याकुल न होकर सांसारिक वस्तुओंमें ही प्रसन्न रहते
हों तो भगवान् निश्चिन्त रहते हैं और हमसे मिलने नहीं आते । यदि बच्चा
लगातार रोने लग जाय और माँके बिना किसी भी वस्तु (खिलौने आदि)-से प्रसन्न न हो तो
घरके सभी लोग बच्चेके पक्षमें हो जाते हैं और उसकी माँको कहते हैं‒‘बच्चा रो रहा
है और तुम काममें लगी हो ! आग लगे तुम्हारे कामको ! शीघ्र बच्चेको गोदमें ले लो ।’
उस समय माँ कितना ही आवश्यक कार्य क्यों न कर रही हो, बच्चेके रोनेके आगे उस
कार्यका कोई मूल्य नहीं रहता । इसी प्रकार हम एकमात्र
भगवान्के लिये रोने लग जायँ तो भगवद्धामके सब सन्तजन हमारे पक्षमें हो जायँ ! वे
सभी कहने लग जायँ‒ ‘महाराज ! बच्चा रो रहा है; आप मिलनेमें देर क्यों कर रहे हैं
?’ फिर भगवान्के आनेमें कोई देर नहीं लगती । हाँ, जब बच्चा खिलौनोंसे खेल
भी रहा हो और ऊपरसे ऊँ...ऊँ...भी कर रहा हो, तब उसे माँ गोदमें नहीं लेती । इसी प्रकार हम सांसारिक खिलौनोंसे भी खेलते हों और रोनेका ढोंग
भी करते हों, तब भगवान् नहीं आते । वे हमारे आन्तरिक भावको देखते हैं, क्रियाको
नहीं । मान-आदर, सुख-आराम, धन-सम्पत्ति, सिद्धियाँ आदि सब सांसारिक खिलौने हैं । माँकी
गोद, उसका प्यार, खिलौने आदि सब कुछ बच्चेके लिये ही होते हैं । ऐसे ही भगवान्की
गोद, उनका प्यार तथा उनके पास जो भी सामग्री है, सब भक्तके लिये ही होती है । भगवान्के लिये भक्तसे
बढ़कर कुछ भी नहीं है । यदि हम किसी भी वस्तुमें
प्रसन्न न होकर भगवान्को पुकारने लगें तो वे तत्काल आ जायँ । इसमें भविष्यकी क्या
बात है ? माँ बच्चेकी योग्यताको देखकर उसके पास नहीं आती । वह यह नहीं
देखती कि बच्चा सुन्दर है, विद्वान् है या धनवान् है ।
बच्चेमें माँको बुलानेकी यही एक योग्यता है कि वह केवल माँको चाहता है और माँके
सिवा दूसरी किसी भी वस्तुसे प्रसन्न नहीं होता । भगवान्के साथ हमारा सम्बन्ध स्वतन्त्रतासे, स्वाभाविक है ।
मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर आदि सब पदार्थ निरन्तर बहे जा रहे हैं । उनके साथ
हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है । भगवान् ही हमारे हैं । बच्चेमें कोई योग्यता,
विद्वत्ता, शूरवीरता आदि नहीं होती, केवल उसमें ‘माँ मेरी है’‒ऐसा माँमें मेरापन
होता है । इस मेरापनमें बड़ी भारी शक्ति है, जो भगवान्को
भी खींच सकती है । इसीके कारण प्रह्लादने पत्थरसे भी भगवान्को निकाल लिया‒ प्रेम बदौं प्रहलादहिको, जिन पाहनतें परमेस्वरु काढ़े ॥ (कवितावली १२७) संसारका हमसे प्रतिक्षण वियोग हो रहा है । शरीर, कुटुम्ब,
धन-सम्पत्ति आदि सब पदार्थ पहले नहीं थे और बादमें भी नहीं रहेंगे । दृश्यमात्र
निरन्तर अदर्शनको प्राप्त होता चला जा रहा है । कोई पदार्थ ६० वर्षतक रहनेवाला हो
तो एक वर्ष बीत जानेपर वह ५९ वर्षका ही रहेगा; क्योंकि वह निरन्तर नाशकी ओर जा रहा
है । हम नहीं रहनेवाले सांसारिक पदार्थोंको अपना मानते
हैं और सदा रहनेवाले परमात्माको अपना नहीं मानते, यह बड़ी भारी भूल हैं । भगवान्
वर्तमानमें हैं और हमारे हैं‒इस बातपर हम दृढ़तापूर्वक डट जायँ, तो भगवान्
वर्तमानमें ही मिल जायँगे । केवल उत्कट अभिलाषा[*] होनेकी देर है, भगवान्के मिलनेमें देर नहीं ।
अपने भावके अनुसार चाहे आज भगवान्को प्राप्त कर लो, चाहे भविष्यमें‒वर्षों या
जन्मोंके बाद ! नारायण ! नारायण
!! नारायण !!! ‒‘जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग’ पुस्तकसे
[*] भगवत्प्राप्तिकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत् करनेका उपाय है‒सम्पूर्ण सांसारिक इच्छाओंका त्याग और दूसरे हमसे जो न्याययुक्त इच्छा करें, उसे यथाशक्ति पूरी कर देना । |