मानव-शरीर
परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही मिला है । परमात्माकी प्राप्तिको ही जीवन्मुक्ति, तत्त्वज्ञान, मोक्षप्राप्ति,
प्रेमप्राप्ति, पूर्णताप्राप्ति और कृत्यकृत्यता आदि नामोंसे अभिहित किया जाता है
। स्थूलरूपसे मानव और मानवेतर प्राणियोंमें कोई अन्तर नहीं है । सभीके शरीर
पाञ्चभौतिक हैं । उनमें शरीरधारी जीवमात्र एक परमेश्वरके ही अंश हैं, चिन्मय हैं‒‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७) । योनियाँ दो प्रकारकी
होती है‒१.भोगयोनी, २.कर्मयोनि । मानव-योनि कर्मयोनि
(साधनयोनि) है । इसी योनिको श्रीगोस्वामीजी महाराजने ‘स्वर्ग नरक अपबर्ग निसेनी’ बताया है । मानव-योनिकी यह
महत्ता है कि इसी योनिमें किये गये कर्मोंके अनुसार मुक्ति अथवा देवयोनि,
स्थावरयोनि, पशु-पक्षी-कीट-पतंगादि योनियाँ प्राप्त होती हैं । मनुष्ययोनिमें किये
हुए कर्मोंके अनुसार ही भोगोंका विधान होता है । मानवयोनिमें
कर्म करनेकी पूर्ण स्वतन्त्रता है । अन्य योनियोंमें जीव अपने पूर्वकृत
शुभाशुभ कर्मोंके अनुसार प्राप्त हुए सुख-दुःखादि भोगोंको भोगता हुआ संसार-चक्रमें
घूमता रहता है‒ आकर चारि लच्छ
चौरासी । जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी ॥ अन्य योनियोंमें जीवको कर्म करनेकी स्वतन्त्रता न होनेसे
वहाँ उसकी मुक्तिके मार्ग अवरुद्ध रहते हैं । जीवमात्रपर अकारण स्नेह रखनेवाले
भगवान् सर्वेश्वर कभी कृपा करके जीवको सदाके लिये दुःख-परम्परासे छुटकारा पानेके
हेतु प्रयत्न करनेका अवसर देनेके लिये मनुष्ययोनि प्रदान करते हैं‒ कबहुँक करि करुना नर देही । देत ईस बिनु हेतु सनेही
॥ कुछ लोगोंका कहना है कि मानवको अपने जीवनका एक ध्येय बनाना चाहिये । ध्येय बनानेसे तदनुसार चेष्टा होगी‒क्रिया होगी । उनका यह कथन ठीक ही है, परन्तु विचार करनेसे ज्ञात होता है कि भगवान्ने पहलेसे ही मानव-जीवनका ध्येय निश्चित कर दिया है । भगवान् पहले जीवके लिये ध्येय निश्चित करते हैं, तदन्तर उक्त ध्येयकी सिद्धिके निमित्त उस जीवको मानव-शरीरकी प्राप्ति कराते हैं । अतः मानवको कोई नूतन ध्येय बनानेकी आवश्यकता नहीं है । आवश्यकता है पूर्वनिश्चित ध्येय या लक्ष्यको पहचाननेकी । भगवान्ने इसी उद्देश्यसे मानव-जन्म दिया है । उन्होंने यह विचार करके कि ‘यह जीव अपना कल्याण-साधन करे’ उसे मनुष्ययोनिमें भेजा है तथा उसके लिये मुक्ति या उद्धारके समस्त साधन इस योनिमें जुटा दिये हैं‒ऐसे साधन जो अत्यन्त सुलभ, सरल और सर्वथा महत्त्वपूर्ण हैं । इसीलिये गोस्वामीजी महाराजने मानव-योनिको ‘साधन-धाम’, मोक्षका द्वार’ तथा ‘भवसागरका बेड़ा’ कहा है‒ साधन धाम मोच्छ कर द्वारा । ...................... ॥ नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो
। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ॥ अब यहाँ प्रश्न उठता है कि ‘जब मनुष्य एक निश्चित ध्येय लेकर उत्पन्न होता है, तब वह उक्त ध्येयको न पकड़कर अन्य दिशाओंमें क्यों भटकने लगता है ? |