।। श्रीहरिः ।।

                                           


आजकी शुभ तिथि–
  कार्तिक शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०७८, मंगलवार
                      

भगवत्प्राप्तिसे ही 

मानव-जीवनकी सार्थकता


जब वह परमात्माकी प्राप्तिके पुनीत लक्ष्यको लेकर आता है, तब उस लक्ष्यकी प्राप्तिके साधनोंमें ही क्यों नहीं लगता ? उस ध्येयके विरुद्ध क्रिया उसके द्वारा क्यों सम्पादित होने लगती है ?‒इन प्रश्नोंका एकमात्र उत्तर यह है कि वह अपने ध्येयको, अपने पूर्व-निर्धारित लक्ष्यको भूल बैठता है, उसे उसकी विस्मृति हो जाती है । इस विषयको अर्जुनका उदाहरण सामने रखकर समझा जा सकता है । जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने अर्जुनसे पूछा‒‘अर्जुन ! क्या तुमने गीताका उपदेश एकाग्र होकर सुना ? क्या तुम्हारा अज्ञान-जनित मोह नष्ट हो गया ?’ तब अर्जुनने हर्ष-विस्फारित नेत्रोंसे भगवान्‌की ओर देखकर इस प्रकार उत्तर दिया‒‘भगवन्‌ ! मेरा मोह नष्ट हो गया । मुझे स्मृति प्राप्त हो गयी । यह सब आपके प्रसादसे हुआ है । अब मैं अपनी पूर्व-स्थितिमें आ गया हूँ ।’ यहाँ स्मृतिका अर्थ न तो ‘अनुभव’ है और न ‘नूतन ज्ञान’ ही । पहले कभी कोई अनुभूति हुई थी, कोई ज्ञान हुआ था; पर वह मोहके आवरणसे आच्छादित होकर विस्मृत हो गया था । भगवान्‌के ज्ञानोपदेशसे वह मोहका आवरण नष्ट हो गया और पूर्व-चेतना पुनः प्रकाशित हो उठी, भूली हुई बात याद आ गयी । वैशेषिकोंने भी ‘स्मृति’ का लक्षण ऐसा ही किया है‒‘संस्कारमात्रजन्यं ज्ञानं स्मृतिः’ (तर्कसंग्रह) । इसी प्रकार योगदर्शनके रचयिता महर्षि पतंजलिने भी ‘अनुभवविषयसम्प्रमोषः स्मृतिः’[*] लिखकर पूर्वानुभूत विषयके साथ ही स्मृतिका तादात्मय बताया है । अर्जुनका ‘स्मृतिर्लब्धा’ (गीता १८/७३)‒यह वचन भी इसी अभिप्रायका पोषक है । इससे ज्ञात होता है कि अर्जुन निश्चितरूपसे लक्ष्यको भूल गया था । उस लक्ष्यकी विस्मृतिमें प्रधान कारण था ‘मोह’, जिसके लिये ही भगवान्‌ने ‘कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टते धनञ्जय’ (गीता १८/७२) कहकर प्रश्न किया था । ‘मोह’ शब्दका प्रयोग तो और भी स्पष्टरूपसे उपर्युक्त भावकी पुष्टि करता है । व्याकरणके अनुसार ‘मोह’ शब्द ‘मुह वैचित्त्ये’ धातुसे बना है । ‘वैचित्त्ये’ पदपर ध्यान देनेसे यह पता चलता है कि ‘विचेतनता‒विगतचेतनता’ का नाम ही ‘वैचित्त्य’ है, अतः यह सिद्ध होता है कि पहले अर्जुनको चेत रहा है और बादमें वह मोहसे ग्रस्त होता है । मोह छूटनेका अर्थ है‒पूर्व-चेतनाकी प्राप्ति । जबतक उसकी बुद्धि मोहके कलिलसे व्यतितीर्ण नहीं हुई, तबतक वह भगवदाज्ञापालनके लिये प्रवृत्त नहीं होता । गीता अध्याय २ श्लोक ५२ में भगवान्‌ने ‘यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति’ कहकर इसी ओर अर्जुनको संकेत किया है । पूर्णतः मोह निवृत्त होनेपर ही सम्यकरूपेण चेतनाकी प्राप्ति होती है । तब वह खुलकर कहता है‒स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥’ (गीता १८/७३)

उपर्युक्त विवेचनसे पता चलता है कि जीवनका लक्ष्य, उद्देश्य अथवा ध्येय तो पहलेसे बना-बनाया है, उसको बनाना नहीं है । केवल उसे पहचाननेकी आवश्यकता है । पहचाननेपर उसकी प्राप्तिका साधन सरल हो जाता है । कठिनाई तो पहचान करनेतक ही है । मोहकी ऐसी प्रबल महिमा है कि मानव-जीवन प्राप्त करनेके अनन्तर सचेत रहकर मुक्तिके लिये प्रयत्न करनेवाले मनुष्यको भी कभी असावधान पाकर वह धर दबाता है ।



[*] इस सूत्रका अर्थ इस प्रकार है‒अनुभव किये हुए विषयका न छिपना अर्थात् प्रकट हो जाना ‘स्मृति’ है ।