उदाहरणतः महाभारतमें हम
देखते हैं कि समरकी सारी तैयारी पूर्ण करनेमें अर्जुनका पूरा हाथ रहता है ।
कुरुक्षेत्रकी धर्मभूमिमें कौरव और पाण्डव-सेनाएँ व्यूहाकार खड़ी होकर शंखध्वनिके
तुमुल नादसे युद्धकी सूचना देती हैं, तब अर्जुन भी अपना देवदत्त शंखका नाद करता है
। शस्त्रसम्पातका प्रारम्भ होनेवाला ही है । अर्जुन पूर्ण सचेत है तथा
कर्तव्यपरायण क्षत्रियकी तरह भगवान् श्रीकृष्णको आदेश देता है‒‘सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत’ (गीता १/२१) ।
‘भगवन् ! मेरे रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा करिये । मैं देखूँ कि इस युद्धमें
मुझे किन-किन लोगोंसे लोहा लेना है ?’ इन जोशभरे वीरोचित शब्दोंको सुनकर भगवान् भी
रथको तत्क्षण दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा करके अर्जुनको कुरुवंशियोंकी ओर देखनेकी आज्ञा
देते हैं । अर्जुन ज्यों ही दोनों सेनाओंमें अपने कुटुम्बियों, स्नेहियों,
गुरुजनों तथा स्वजनोंको ही युद्धके लिये सज्जित देखता है, त्यों ही उसके मनमें विषाद
छा जाता है । युद्धका परिणाम युद्धसे भी भयंकर और दारुण
प्रतीत होता है । इस कुलक्षयसे उसे सुखकी कल्पना न होकर सर्वनाशकी परम्परा
खुलती दिखायी देती है । उसके लिये अपने जीवनका कोई मूल्य नहीं रह जाता और इस
कुटुम्ब-ग्रासकी अपेक्षा अपने लिये मृत्युकी आकांक्षा श्रेयस्कर प्रतीत होने लगती
है । उसे कर्तव्यमें अकर्तव्य, श्रेयमें अश्रेय तथा
अर्थमें अनर्थके दर्शन होते हैं । ममता और आत्मीयताके कारण ऐसे युद्धसे विरत होना
ही वह श्रेष्ठतम कर्तव्य समझ बैठता है । भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनके इस
दुर्धर्ष मोहकी ‘क्लैब्य’, ‘कश्मल’ आदि शब्दोंसे तथा ‘अनार्यजुष्टम्’,
‘अस्वर्ग्यम्’, ‘अकीर्तिकरम्’
आदि पदोंसे उसके भयंकर परिणामोंको दिखाकर निन्दा की । किन्तु अर्जुनपर मोहका ऐसा
गहरा रंग चढा था कि उसने अपने भावोंको ही श्रेष्ठ माना और पुनः कुछ बोलकर उन्हींका
पिष्टपेषण किया । पुष्ट प्रमाणोंसे अपने वचनोंपर जोर देते हुए कहा‒‘पूजाके योग्य
पितामह भीष्म और आचार्य द्रोणको बाणोंसे कैसे मारा जा सकता है ? मरनेपर
गुरुजन-हिंसाके जघन्य अपराधके बाद हमें उनके रक्तसे सने हुए केवल अर्थ-काममय भोग
ही तो प्राप्त होंगे । धर्म अथवा मुक्ति तो मिल नहीं जायगी ? अतः मेरे विचारसे
युद्धका कोई औचित्य नहीं है ।’ इस प्रकार अर्जुनपर मोहने ऐसा अधिकार जमा लिया कि
वह कर्तव्यविमुख हो गया । अन्ततः भगवान्ने गीता-ज्ञानका
महान उपदेश देकर उसके मोहको निवृत्त किया । अतः गीता प्रत्येक मोहग्रस्त मानवके मोहनिवारणका अमोघ औषध है । मानव जबतक अपने लिये सुनिश्चित ध्येयकी पूर्तिकी ओर अग्रसर नहीं होता, तबतक वह अन्य सामान्य जीव-योनियोंसे विशिष्ट कोटिमें नहीं पहुँचता । अतः मनुष्यको अपने उद्धार या कल्याणकी दृष्टिसे अपनी विस्मृत चेतनाकी पुनः प्राप्तिके लिये प्रयत्नरत होनेमें ही मानवताकी सार्थकता समझनी चाहिये । जिस कार्यके लिये यह दुर्लभ मनुष्यशरीर प्राप्त हुआ है, उसका साधन न करके मानव शरीर, इन्द्रिय और प्राणोंकी मुख्यता माननेके कारण कुटुम्ब एवं भोग-सामग्रियोंमें आसक्त होकर उसे भूल गया है । जनसाधारणकी ऐसी ही स्थिति प्रायः देखनेमें आती है । |