वस्तुतः ध्यानसे देखा जाय तो ज्ञात होगा कि मनुष्यकी जितनी क्रियाशीलता इस विरोधी दिशामें है, उतनी ही
विवेकपूर्ण क्रियाशीलतासे मुक्ति अथवा उद्धारका मार्ग भी प्रशस्त हो सकता है ।
पर हो क्या रहा है ? मानव अपने लिये कभी
स्वर्गकी, कभी अर्थकी, कभी भोगकी और कभी यशकी प्राप्तिके लिये नाना प्रकारकी
योजनाएँ बनानेमें मस्त है । वह समझता है कि जीवनका मूल्य इतना ही है । इस प्रकार
पुनः अपने-आपको आवागमन-चक्रमें डालनेका कुचक्र वह स्वयं ही रच लेता है । भगवान्ने
गीतामें बताया है‒ उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ (६/५) अर्थात् मनुष्य स्वयं ही अपना उद्धार करे,
अपने-आपको अवनतिके गर्तमें न गिरने दे । वह स्वयं ही अपना बन्धु तथा स्वयं ही अपना
शत्रु है । आजका मानव आत्माके उद्धाराके लिये यत्न न करके स्वयं ही
अपने प्रति शत्रुता कर रहा है । कहाँतक उल्लेख किया जाय, आज
जिसको भौतिक सम्मान प्राप्त है, वह और अधिक सम्मानकी खोजमें है । धनिक और अधिक
धनकी तलाशमें हैं । ग्रन्थकार मृत्युके बाद अमर कीर्तिकी अभिलाषामें डूबा है ।
बड़े-बड़े भवनोंके निर्माता अपनी भौतिक कीर्तिको चिरस्थायी बनानेके स्वप्न देखता है
और धर्मोपदेष्टा अपनी प्रसिद्धिका वातावरण बनानेमें संलग्न है‒आदि-आदि । इस
प्रकार मानवका सारा प्रयत्न ध्येयकी प्राप्तिके लिये न होकर उससे उलटी दिशाकी ओर
जानेके लिये हो रहा है । परिणाम यह है कि इस दिशामें
जितनी ही विशेषताकी उत्कट आकांक्षा की जाती है, मानवताके वास्तविक लक्ष्यसे उतनी
ही अधिक दूरी होती जा रही है; क्योंकि ये सारी बातें व्यक्तित्वको दृढ़
करनेमें सहायक हैं । होना यह चाहिये कि मनुष्य व्यक्तित्वको हटाकर वहाँ अपने स्वरूपकी
प्रतिष्ठा करे । उसका सारा प्रयत्न चिन्मयताकी प्राप्तिके लिये होना उचित है । जैसे कोई मनुष्य तीर्थ-स्नानको जाता है, वहाँ मेलेसे दूर
किसी धर्मशालामें ठहरता है और धर्मशालाके स्थानको अपने लिये उपयोगी बनाने, रसोईका
सुन्दर प्रबन्ध करने तथा अन्यान्य सुखभोगके सामान जुटाने आदिमें तन्मय हो जाता है
कि तीर्थ-स्नान, देव-दर्शन, तीर्थ-दर्शन, मेला-महोत्सव और साधु-समागम आदि कोई
कार्य नहीं कर पाता । ऐसे मनुष्यको तो हम उपहासास्पद ही बताएँगे । इसी प्रकार
मनुष्य आया तो भगवत्प्राप्तिके लिये, किन्तु लग गया संग्रह और भोग भोगने आदिमें‒ आये थे हरि भजनको, ओटन लगे कपास ।
भोगोंकी प्राप्ति हमारा लक्ष्य नहीं है, पर प्रयत्न उसीके
लिये होता है । भगवान्की प्राप्ति ही मानव-जीवनका मुख्य लक्ष्य है, किन्तु उसके
लिये कोई प्रयत्न नहीं हो रहा है । शरीर, इन्द्रिय,
प्राण, मन, बुद्धि, धन, वैभव, भोग आदि पदार्थ साधनमात्र हैं, किन्तु उन्हें साध्य
बना लिया गया है और जो वास्तविक साध्य है, उसकी सर्वथा उपेक्षा कर दी गयी है । |