।। श्रीहरिः ।।

                                              


आजकी शुभ तिथि–
  कार्तिक शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०७८, शुक्रवार
                      

भगवत्प्राप्तिसे ही 

मानव-जीवनकी सार्थकता


भगवान्‌ने जीवके कल्याणके लिये चार पुरुषार्थ निश्चित किये हैं‒धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । इन चारों पुरुषार्थोंके विस्तारके क्षेत्र हैं‒चारों वर्ण तथा चारों आश्रम । उन्हींके द्वारा इनका अनुष्ठान होता है । चार पुरुषार्थ ही चार इच्छाएँ हैं तथा इनकी प्राप्तिके दो साधन माने जाते हैं । काम और अर्थकी प्राप्तिमें प्रारब्धकी प्रधानता रहती है तथा धर्म और मोक्षकी प्राप्तिमें उद्योगकी । अर्थको काम-प्रवण बना दिया जाय‒कामकी पूर्तिके प्रति उन्मुख कर दिया जाय तो अर्थका नाश हो जाता है । धर्मको कामसे संयुक्त कर दिया जाय तो धर्मका नाश हो जाता है । इसके विपरीत यदि अर्थको धर्ममें लगा दिया जाय तो वह धर्मके रूपमें परिणत हो जायगा । धर्मको अर्थमें लगा देनेसे वह अर्थका रूप धारण कर लेगा । इस प्रकार धर्म और अर्थ एक-दूसरेके पूरक और उत्पादक हैं । पर उन्हींको जब क्रोधसे जोड़नेका प्रयत्न किया जायगा, तब दोनोंका विनाश हो जायगा तथा कामनाका अभाव करके किया गया धर्म और अर्थ‒दोनोंका अनुष्ठान मुक्तिमें सहायक हो जायगा । निष्कामभावसे ‘काम’ का आचरण (विषय-सेवन) भी मुक्तिका मार्ग प्रशस्त करेगा । अतः मानवको चाहिये कि वह निष्कामभावसे आसक्तिका त्याग करके धर्मपूर्वक अर्थ-कामका आचरण करे । अर्थका सद्‌व्यय करे और अनासक्तभावसे धर्मानुकूल काम-सेवनमें प्रवृत्त हो । ऐसी प्रगति ही सच्ची मानवाताकी दिशामें प्रगति है ।

इसी प्रकार चारों वर्ण अपने लिये गीतामें उपदिष्ट वर्ण-धर्मका पालन करके सच्ची मुक्ति अथवा सिद्धिको प्राप्त कर सकते हैं । जिसको आत्माके कल्याणका साधन करना है, वह इस द्वन्द्वात्मक जगत्‌के झंझावातोंसे प्रभावित न होकर अपने लिये निश्चित कर्तव्य-मार्गपर चलता रहता है तथा सिद्धिको प्राप्त करके ही दम लेता है । भगवान्‌ श्रीकृष्णने गीतामें बताया है‒

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।

(१८/४५)

‘अपने-अपने कर्ममें अनासक्तभावसे लगा रहनेवाला मानव सिद्धिको प्राप्त कर लेता है ।’ ठीक ऐसे ही चारों आश्रम भी मानवके ध्येयकी पूर्तिमें पूर्ण सहायक होते हैं । आश्रमोंमें दो आश्रम मुख्य हैं‒गृहस्थाश्रम और संन्यासाश्रम । ब्रह्मचर्याश्रममें गृहस्थाश्रमकी तैयारी की जाती है और वानप्रस्थाश्रममें संन्यासाश्रमकी । ब्रह्मचर्याश्रम प्रथम आश्रम है । इसमें प्रविष्ट होकर विद्योपार्जन और धर्मानुष्ठान करके यदि यहीं अर्थ-कामकी इच्छाके प्रति निर्वेद उत्पन्न हो जाय तो सीधे नैष्ठिक ब्रह्मचर्यका व्रत लेकर मानव इसी आश्रममें अपना कल्याण-साधन कर सकता है । यदि अर्थ-कामकी इच्छाको विवेक-विचारद्वारा इस आश्रममें नहीं मिटाया जा सका तो उस उपकुर्वाण ब्रह्मचारीके लिये गृहस्थाश्रम रखा गया है । इस आश्रममें रहकर मानव भोगोंके तत्त्वका ज्ञान करनेके लिये धर्मानुकूल अर्थ-कामका आचरण करे । यह भी साध्यकी दिशामें ही प्रवर्तन है, जिससे‒धर्म ते बिरति जोग ते ग्याना । ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना ॥‒वाली बात सम्भव होती है, क्योंकि धर्मानुसार गृहस्थाश्रमका अनुष्ठान करनेसे वैराग्यका होना अनिवार्य है ।