सीमित
भोगका अर्थ ही गृहस्थाश्रम है । असीमित भोगोंके प्रतीकरूपमें सीमित भोग गृहस्थको इसलिये प्राप्त होते हैं कि लक्ष्यको याद रखते हुए, भोगोंका तत्त्व जाननेके लिये
विधि-विधानसे सीमित भोग भोगकर गृहस्थ पुरुष उनका तत्त्व जाननेके पश्चात् उन
भोगोंसे उपरत हो जाय और परमात्माकी प्राप्तिके साधनमें तत्परतासे लग जाय । उन
प्राप्त भोग-पदार्थोंके द्वारा निष्कामभावसे जनता-जनार्दनकी सेवामें प्रवृत्त होकर
उस सेवारूप साधनसे भी गृहस्थ परमात्माको प्राप्त कर सकता है ।
जनता-जनार्दनकी सेवा करते समय सेवाकी सामग्री (धनादि उपकरण) तथा सेवाके साधन
(अन्तःकरण, इन्द्रियाँ आदि)-को भी उन्हींका (सेव्यका ही) समझना चाहिये । यह सेवा सामग्री जिनकी है, उन्हींकी सेवामें इसे लगा रहा
हूँ‒यह भाव दृढ़ हो जानेपर उन उपकरणोंसे अपना सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा । ‘त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये’ के अनुसार वे
सेव्यके समर्पित हो जायँगे । ऐसी भावना बननेपर ज्ञात होगा कि अपने पास जो कुछ भी भोग-सामग्री और उनका संग्रह है, वह केवल
सेवाके उद्देश्यकी पूर्तिके लिये है । फिर उनके प्रति अपनी ममताका सर्वथा अभाव हो
जायगा । इससे जीवकी जड़ता जड़ संसारमें मिल जायगी और उससे सर्वथा
सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेसे चेतन-स्वरूपमें स्वतः स्थिति हो जायगी । इस तत्त्वको और अधिक बोधगम्य बनानेकी दृष्टिसे यहाँ यह जान
लेना चाहिये कि इन्द्रियाँका उपभोग तीन प्रकारका होता है‒(१) भोगोंका तत्त्व
जाननेके लिये, (२) उनके द्वारा दूसरोंकी सेवा करनेके लिये तथा (३) परमात्माकी
प्राप्तिके निमित्त शरीर-निर्वाह-क्रियाके सम्पादनके लिये । अब उनका अलग-अलग
विश्लेषण किया जाता है । भोगोंका तत्त्वज्ञान‒यहाँ तत्त्व जाननेका अर्थ यह है कि भोगोंमें सीमित सुख है ।
भोगोंमें सीमित सुखकी मात्रा क्या है‒इसके अनुभवके लिये भी हमें भोगके अभावके
दुःखका अनुभव करना पड़ेगा; क्योंकि भोगके अभावका दुःख जितना अधिक होगा, भोग उतना ही
सुख प्रदान करेगा । अतः अभावकी भी आवश्यकता पड़ेगी । अभाव नहीं होगा तो सुख भी नहीं
होगा । साथ ही भोग भोगते समय भोगशक्तिका नाश होता है और भोगेच्छा उत्तरोत्तर
वृद्धिको प्राप्त होती है । भोग्य पदार्थ अनित्य होनेसे नाशशील हैं, प्रतिक्षण
नष्ट होते रहते हैं । भोग पदार्थके नष्ट हो जानेपर उनके भोगनेके संस्कारोंकी स्मृति
कष्टकारक होती है । भोगोंके तत्त्वका यह ज्ञान भोगोंके भोगनेसे उपलब्ध हो जाता है
।
दूसरोंकी सेवाका तत्त्व‒जबतक मानवको अनुकूल और प्रतिकूल पदार्थोंका ज्ञान नहीं
होगा, तबतक वह प्रतिकूल पदार्थों और क्रियाओंके त्यागपूर्वक अनुकूल पदार्थ और
क्रियाओंके द्वारा दूसरोंकी सेवा नहीं कर सकता । सेवा करते समय सेवाकी वस्तुएँ
जिनकी हम सेवा करते हैं उनकी समझनी चाहिये । इससे वह उनके प्रति ममता और आसक्तिके
बन्धनसे मुक्त हो जायगा । जबतक ममता और आसक्ति है, तबतक
अनुकूलता-प्रतिकूलताका द्वन्द्व बना रहता है । |