शरीर-निर्वाह-क्रियाका‒अर्थ है राग-द्वेषरहित होकर विषयोंका सेवन करना । भगवान्ने गीतामें बताया है‒ रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् । आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥ (२/६४) ‘अपने वशमें की हुई राग-द्वेषरहित
इन्द्रियाँद्वारा विषय-सेवन करनेवाला जितात्मा पुरुष प्रसाद (अन्तःकरणकी प्रसन्नता)-को
प्राप्त होता है’ विषयोंका राग-द्वेषपूर्वक चिन्तन करनेसे मनुष्यका
पतन होता है; क्योंकि
विषयोंका ध्यान उनके प्रति मानव-हृदयमें आसक्तिका अंकुर उत्पन्न कर देता है और
आसक्ति सब अनर्थोंकी जड़ है । यहाँतक कि आसक्तिसे मानवकी बुद्धि नष्ट होकर उसका पतन
हो जाता है‒‘बुद्धिनाशात् प्रणश्यति’ (गीता २/६३) ।
किन्तु राग-द्वेषरहित होकर विषयोंका सेवन भी प्रसादकी प्राप्ति कराता है । यह
विषय-सेवन राग-द्वेषके त्याग और संयमपूर्वक केवल शरीर-निर्वाहमात्रके लिये ही होना
उचित है, न कि भोगबुद्धिसे । तभी वह मुक्तिका कारण होता है । अस्तु, गृहस्थाश्रमी गृहस्थ-धर्मका पालन करके भी परमात्माकी प्राप्ति
कर सकता है‒यह ऊपर बताया गया । अथवा वह वानप्रस्थ-आश्रममें प्रवेश करे और वहाँ
तितिक्षा तथा संयमकी उत्कट साधनामें रत होकर परमात्माको प्राप्त करे । अथवा
संन्यासकी योग्यता प्राप्त करके संन्यास-आश्रममें चला जाय । वहाँ बाहर-भीतरसे
त्यागी होकर निरन्तर ब्रह्मचिन्तन करते हुए परमात्माको प्राप्त करे । जड-चेतनकी ग्रन्थिका नाम ही जीव है; इसलिये मानवमें जड अंशको लेकर सुख-भोग तथा संग्रहकी इच्छा होती है और
चेतन अंशको लेकर मुमुक्षा अर्थात् भगवान्की प्राप्तिकी इच्छा होती है । मुक्ति
और भुक्तिकी इच्छाओंमें भोगोंकी इच्छा चाहे कितनी ही प्रबल हो जाय, वह परमात्माकी प्राप्तिकी
इच्छाको मिटा नहीं सकती । जडता चेतनपर कुछ कालके लिये भले ही छा जाय, पर
उसका अस्तित्व मिटा नहीं सकती । बल्कि परमात्माकी
प्राप्तिकी इच्छा प्रबल और उत्कट हो जानेपर भोगेच्छाका अस्तित्व मिट जाता है;
क्योंकि भोग और उनकी इच्छा दोनों ही अनित्य हैं । परमात्मा और उनका प्रेम
दोनों नित्य हैं । परमात्माकी प्राप्तिकी इच्छा ही भगवान्के प्रेमका स्वरूप बन
जाती है । प्रेम और भगवान् दोनों एक हैं । जबतक भोगोंकी
यत्किञ्चित् इच्छा है, तभीतक साधनावस्था है । जब परमात्माकी प्राप्तिकी
इच्छा, मोक्षकी इच्छा, प्रेम-पिपासा मुख्य इच्छा बन जाती है, तब भोगेच्छा मिट जाती
है । उसके मिटते ही नित्यप्राप्त परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है । इस प्रकार मानव
सहज ही अपने लक्ष्यको प्राप्त कर लेता है । वह कृतकृत्य, प्राप्त-प्राप्तव्य और
ज्ञात-ज्ञातव्य हो जाता है । अर्थात् उसने करनेयोग्य सब कुछ कर लिया, प्राप्त
करनेयोग्य सम्पूर्ण लक्ष्य प्राप्त कर लिया और जाननेयोग्य सब कुछ जान लिया ।
इसीमें मानव-जीवनकी सार्थकता है । नारायण ! नारायण
!! नारायण !!! ‒‘एकै साधे सब सधै’ पुस्तकसे |