।। श्रीहरिः ।।

                                                


आजकी शुभ तिथि–
  कार्तिक शुक्ल एकादशी, वि.सं.-२०७८, रविवार
                वैष्णव एकादशी-व्रत कल है
                      

भगवत्प्राप्तिसे ही 

मानव-जीवनकी सार्थकता


शरीर-निर्वाह-क्रियाका‒अर्थ है राग-द्वेषरहित होकर विषयोंका सेवन करना । भगवान्‌ने गीतामें बताया है‒

रागद्वेषवियुक्तैस्तु    विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।

आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥

(२/६४)

‘अपने वशमें की हुई राग-द्वेषरहित इन्द्रियाँद्वारा विषय-सेवन करनेवाला जितात्मा पुरुष प्रसाद (अन्तःकरणकी प्रसन्नता)-को प्राप्त होता है’

विषयोंका राग-द्वेषपूर्वक चिन्तन करनेसे मनुष्यका पतन होता है; क्योंकि विषयोंका ध्यान उनके प्रति मानव-हृदयमें आसक्तिका अंकुर उत्पन्न कर देता है और आसक्ति सब अनर्थोंकी जड़ है । यहाँतक कि आसक्तिसे मानवकी बुद्धि नष्ट होकर उसका पतन हो जाता है‒‘बुद्धिनाशात् प्रणश्यति’ (गीता २/६३) । किन्तु राग-द्वेषरहित होकर विषयोंका सेवन भी प्रसादकी प्राप्ति कराता है । यह विषय-सेवन राग-द्वेषके त्याग और संयमपूर्वक केवल शरीर-निर्वाहमात्रके लिये ही होना उचित है, न कि भोगबुद्धिसे । तभी वह मुक्तिका कारण होता है । अस्तु,

गृहस्थाश्रमी गृहस्थ-धर्मका पालन करके भी परमात्माकी प्राप्ति कर सकता है‒यह ऊपर बताया गया । अथवा वह वानप्रस्थ-आश्रममें प्रवेश करे और वहाँ तितिक्षा तथा संयमकी उत्कट साधनामें रत होकर परमात्माको प्राप्त करे । अथवा संन्यासकी योग्यता प्राप्त करके संन्यास-आश्रममें चला जाय । वहाँ बाहर-भीतरसे त्यागी होकर निरन्तर ब्रह्मचिन्तन करते हुए परमात्माको प्राप्त करे ।

जड-चेतनकी ग्रन्थिका नाम ही जीव है; इसलिये मानवमें जड अंशको लेकर सुख-भोग तथा संग्रहकी इच्छा होती है और चेतन अंशको लेकर मुमुक्षा अर्थात्‌ भगवान्‌की प्राप्तिकी इच्छा होती है । मुक्ति और भुक्तिकी इच्छाओंमें भोगोंकी इच्छा चाहे कितनी ही प्रबल हो जाय, वह परमात्माकी प्राप्तिकी इच्छाको मिटा नहीं सकती । जडता चेतनपर कुछ कालके लिये भले ही छा जाय, पर उसका अस्तित्व मिटा नहीं सकती । बल्कि परमात्माकी प्राप्तिकी इच्छा प्रबल और उत्कट हो जानेपर भोगेच्छाका अस्तित्व मिट जाता है; क्योंकि भोग और उनकी इच्छा दोनों ही अनित्य हैं । परमात्मा और उनका प्रेम दोनों नित्य हैं । परमात्माकी प्राप्तिकी इच्छा ही भगवान्‌के प्रेमका स्वरूप बन जाती है । प्रेम और भगवान्‌ दोनों एक हैं । जबतक भोगोंकी यत्किञ्चित् इच्छा है, तभीतक साधनावस्था है । जब परमात्माकी प्राप्तिकी इच्छा, मोक्षकी इच्छा, प्रेम-पिपासा मुख्य इच्छा बन जाती है, तब भोगेच्छा मिट जाती है । उसके मिटते ही नित्यप्राप्त परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है । इस प्रकार मानव सहज ही अपने लक्ष्यको प्राप्त कर लेता है । वह कृतकृत्य, प्राप्त-प्राप्तव्य और ज्ञात-ज्ञातव्य हो जाता है । अर्थात्‌ उसने करनेयोग्य सब कुछ कर लिया, प्राप्त करनेयोग्य सम्पूर्ण लक्ष्य प्राप्त कर लिया और जाननेयोग्य सब कुछ जान लिया । इसीमें मानव-जीवनकी सार्थकता है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘एकै साधे सब सधै’ पुस्तकसे