।। श्रीहरिः ।।

                                                 


आजकी शुभ तिथि–
  कार्तिक शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०७८, सोमवार
               दृढ़ निश्चयकी महिमा


मैंने सन्तोंसे सुना है कि ‘परमात्मा है’‒ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाय तो अपने-आपको जनानेकी जिम्मेदारी भगवान्‌पर आ जाती है । हम भगवान्‌को अपने उद्योगसे नहीं जान सकते, पर ‘भगवान्‌ सब जगह है’‒यह भाव दृढ़ होनेपर भगवान्‌ खुद अपने-आपको जना देते हैं ।

भगवान्‌ सब जगह हैं‒यह बात हमें जँची हुई है ही, फिर इसमें कमी क्या है ? इसमें एक बातकी कमी है कि हम जानते हैं कि यह संसार पहले ऐसा नहीं था और फिर ऐसा नहीं रहेगा तथा अभी भी हरदम बदल रहा है, फिर भी संसारको ‘है’ मान लेते हैं अर्थात्‌ अपने इस अनुभवका निरादर करते हैं । इस कारण ‘परमात्मा है’‒इस मान्यताकी दृढ़तामें कमी आ रही है । इसलिये अपने अनुभवका आदर करें ।

जैसे, जबतक नींद नहीं आती, तबतक स्वप्न नहीं आता और नींद खुलनेक बाद भी स्वप्न नहीं रहता, बीचमें (नींदमें) स्वप्न आता है । बीचमें भी आप उसको सच्चा मान लेते हो, नहीं तो वह है ही नहीं । इसी तरह संसारको मान लें कि यह संसार, शरीर पहले नहीं थे, पीछे भी नहीं रहेंगे, बीचमें भी केवल दीखते हैं, वास्तवमें हैं नहीं । अब कोई कहे कि संसार, शरीर आदि प्रत्यक्ष दीखते हैं, इनको ‘नहीं’ कैसे मानें ? तो भाई ! स्वप्न दीखनेमें कम सच्चा थोड़े ही दीखता था । जब दीखता था, तब ठीक सच्चा ही दीखता था । परन्तु जगनेपर स्वप्न नहीं दीखता । इससे सिद्ध हुआ कि वह था ही नहीं । आजसे सौ वर्ष पहले ये शरीर थे क्या ? और सौ वर्षके बाद ये शरीर रहेंगे क्या ? हरेक आदमी मान लेगा कि बिलकुल नहीं रहेंगे । ‘आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा’ अर्थात्‌ जो आदि और अन्तमें नहीं होता, वह वर्तमानमें भी नहीं होता । इस दृष्टिसे यह सब-का-सब निरन्तर ‘नहीं’ में भरती हो रहा है । जितनी उम्र बीत गयी, उतनी तो ‘नहीं’ में भरती हो ही गयी । अब जितनी उम्र बाकी रही, वह भी प्रतिक्षण ‘नहीं’ में भरती हो रही है । यह सब संसार प्रतिक्षण अभावमें जा रहा है । जितना सर्ग है, वह प्रतिक्षण प्रलयमें जा रहा है । जितना महासर्ग है, वह प्रतिक्षण महाप्रलयमें जा रहा है ।

इस संसारको नाशवान्‌ कहते हैं । जैसे धनके कारण मनुष्य धनवान्‌ कहलाता है । अगर धन नहीं हो तो वह धनवान्‌ नहीं कहलाता, ऐसे ही संसार नाशवान्‌ कहलाता है तो इसमें नाशके सिवाय कुछ नहीं है, नाश-ही-नाश है । अगर ‘परमात्मा है’‒यह दृढ़ निश्चय हो जाय तो जो ‘नहीं’ को ‘है’ माना है, वह आड़ हट जायगी और परमात्मा प्रकट हो जायँगे ! कारण कि परमात्मा तो हैं ही, उनका कभी अभाव नहीं होता । परमात्मा सब जगह होनेसे यहाँ भी हैं, सब समयमें होनेसे अभी भी हैं, सबमें होनेसे अपनेमें भी हैं और सबके होनेसे हमारे भी हैं । उनका अभाव कभी हो नहीं सकता, कभी हुआ नहीं, जब कि संसारका भाव नहीं हो सकता‒ऐसा यथार्थ दृष्टिसे दृढ़तापूर्वक जानते ही संसारकी जगह परमात्मा दीखने लग जायँगे । अभी भी परमात्मा ही दीखते हैं; क्योंकि संसारकी तो सत्ता ही नहीं है । परमात्माकी सत्तासे ही यह संसार सत्य दीख रहा है । इसमें सत्य तो एक परमात्मा ही हैं । तो फिर यह संसार सत्य क्यों दीखता है ?

जासु सत्यता   तें जड़ माया ।

भास सत्य इव मोह सहाया ॥

(मानस १/११७/४)

मूर्खतासे ही यह संसार सत्य दीखता है । जो जानता है, पर मानता नहीं, उसे मूर्ख कहते हैं । जानता है कि यह संसार नाशवान्‌ है फिर भी इसको स्थिर मानता है‒यही मूर्खता है । हम जितना जानते हैं, उतना मान लें तो मूर्खता नहीं रहेगी और हम निहाल हो जायँगे ।