।। श्रीहरिः ।।

                                                   


आजकी शुभ तिथि–
  कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०७८, बुधवार
          तत्त्वका अनुभव कैसे हो ?


किसीसे अनुभवकी बात पूछना और अनुभवकी बात कहना‒ये दोनों ही बढ़िया चीज नहीं हैं । दूसरी बात, कोई भी व्याख्यानदाता अपनी दृष्टिसे बढ़िया-से-बढ़िया बात ही कहेगा; क्योंकि अपनी इज्जत सभी चाहते हैं । वह भी तो अपनी इज्जत चाहता है, इसलिये वह घटिया बात क्यों कहेगा ? वह अपना अनुभव छिपायेगा ही कैसे ?

सन्तोंकी वाणीमें आया है कि साधु-सन्तकी परीक्षा शब्दसे होती है‒‘साधु पिछानिये शबद सुनाता ।’ वह क्या बोलता है‒इससे भावोंका पता लग जाता है । किसी भी आदमीसे आप ठीक तरहसे बात करो, उसकी बातोंपर ध्यान दो तो उसके भीतरके भावोंका पता लग जायगा कि वह कैसा है ? कहाँतक पहुँचा हुआ है ?

गीताको देखनेसे पता लगता है कि भगवान्‌का क्या भाव है । गीता पढ़नेपर हमारी समझमें यह बात आयी कि  भगवान्‌ने दो बातोंपर विशेष जोर दिया है‒एक तो जीवन-पर्यन्त साधन करना और दूसरा अन्तकालमें सावधान रहना । इन दो विषयोंपर भगवान्‌ जितना बोले हैं, उतना दूसरे किसी विषयपर नहीं बोले ।

श्रोता‒उस तत्त्वका अनुभव कैसे हो महाराजजी ?

स्वामीजी‒पहले यह बात मान लो कि सब कुछ परमात्मा ही है; हमारेको दीखे, चाहे न दीखे; हमारी समझमें आये, चाहे न आये । गीताका खास सिद्धान्त है‒‘वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः’ (७/१९) । अर्थात्‌ सब कुछ परमात्मा ही है‒ऐसा अनुभव करनेवाला महात्मा बहुत दुर्लभ है । ऐसे ऊँचे दर्जेंके महात्माओंकी बातें हमने सुनी हैं, पुस्तकोंसे पढ़ी हैं कि वे किसीको कोई बात समझाते हैं या प्रश्नका उत्तर देते हैं, तो भी उनके मनमें यह बात नहीं आती कि मैं तो समझदार हूँ और ये बेसमझ हैं, अनजान हैं । इनको मैं जना दूँ; यह सीखता है तो मैं सिखा दूँ‒ऐसा भाव नहीं रहता । तो क्या भाव रहता है ? कि हमारे प्रभु ही व्यापकरूपसे होकर पूछ रहे हैं । उनकी जो धारणा है, उसके अनुसार मैं कह रहा हूँ‒इस तरह प्रभुकी मैं सेवा कर रहा हूँ । मेरे भीतर जो बोलनेकी एक आसक्ति है, कामना है, उसको पूरी करनेके लिये प्रभु अनजान बनकर पूछते हैं । केवल मेरेपर कृपा करनेके लिये ही पूछते हैं । मेरी बोलनेकी आसक्तिको मिटानेके लिये ही प्रभुने यह सब संयोग रचा है, यह उनकी ही लीला है । संसारका जो स्वरूप दिखता है, वह तो प्रभुका स्वरूप है और संसारकी जो चेष्टा है, वह सब प्रभुकी लीला है । प्रभु ही मेरेपर कृपा करनेके लिये विलक्षण रीतिसे लीला कर रहे हैं । उनका किसीसे कोई मतलब नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है; उनको न तो किसीसे कुछ लेना है, न कुछ सीखना है, वे तो केवल कृपा करके ऐसा कर रहे हैं । अतः उनकी कृपा-ही-कृपा है‒यह बात हमलोगोंको मान लेनी चाहिये । जो महापुरुषोंका अनुभव है, उसको हम पहले ही मान लें तो फिर वह दीखने लग जायगा ।