हम पढ़ाई करते हैं तो अध्यापक ‘क, ख, ग, घ.....’ लिखकर बता
दे और हम वैसे ही मानकर याद कर लें तो हम पढ़े-लिखे हो जायँगे । ऐसे ही अंग्रेजीकी
‘A, B, C, D....’ लिखकर बता दे और हम वैसे ही मानकर सीख लें तो हमें अंग्रेजी आने
लगेगी । अब इसका तो पता लगता नहीं कि ‘A’‒यह ‘ए’ कैसे हुआ ? दो लाइनें इस तरह खींच
दीं तथा एक लाइन बीचमें लगा दी और कहा यह ‘A’ है, तो हमने मान लिया कि ठीक है
साहब, यह ‘ए’ है । अब माननेके सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं
है । अध्यापक जैसा कह दे, उसकी हाँ-में-हाँ मिला दे तो हम सीख जायँगे और एक
दिन पंडित हो जायँगे । ऐसे ही जो सन्त-महात्मा हैं,
जिनपर हमारी श्रद्धा है, वे जैसा कहें, उनकी हाँ-में-हाँ मिला दे तो फिर हमें वैसा
ही अनुभव हो जायगा, इसमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं है । अक्षरोंके
ज्ञानमें तो छोटा-बड़ा होता है; परन्तु तत्त्वज्ञानमें छोटा-बड़ा होता ही नहीं । आजतक सनकादिक, नारदजी, व्यासजी आदि जितने बड़े-बड़े महापुरुष हुए
हैं, उनको जो बोध प्राप्त हुआ है, वही बोध आज एक साधारण आदमीको प्राप्त हो सकता है;
जिससे बढ़कर कोई विद्वता नहीं है, जिससे बढ़कर कोई सुख-आनन्द नहीं है, जिससे बढ़कर
कोई उन्नति नहीं है, जिससे बढ़कर कोई चीज नहीं है, उसको मनुष्यमात्र प्राप्त कर
सकता है । उस
तत्त्वको प्राप्त करनेके लिये ही मनुष्यका निर्माण हुआ है । खाना-पीना,
सोना आदि तो कुत्तोंमें, गधोंमें भी होता है । उनमें भी बाल-बच्चे होते हैं,
परिवार होता है । अब इतना ही काम मनुष्यने कर लिया तो मनुष्यजन्मकी महिमा क्या हुई
? यह तो पशुपना ही है । आकृति तो मनुष्यकी दीखती है, पर मनुष्यपना नहीं है ।
मनुष्यपना तो वह है, जिसके लिये भगवान्ने कृपा करके मनुष्य-शरीर दिया है‒ कबहुँक करि करुना नर देही । देत ईस बिनु
हेतु सनेही ॥ (मानस ७/४४/३)
ऐसे मौकेको भोग भोगने और संग्रह करनेमें ही लगा
दिया ! यह तू किस काममें लग गया ? यह क्या धंधा बीचमें ही छेड़ दिया ? कहाँ पहुँचना
था तुझे और कहाँ बीचमें अटक गया ? ये भोग भी यहीं छूट जायँगे, शरीर भी यहीं छूट जायगा, रुपये भी यहीं छूट
जायँगे । जो छूट जायँगे उनसे तुझे क्या मिला ? असली
मिलना तो वह है, जो कभी छूटे नहीं, सदा साथ रहे । इसलिए सज्जनो ! चीज तो वह लो, जो सदा साथ रहे, कभी इधर-उधर हो ही नहीं ।
शरीरके टुकड़े-टुकड़े कर दिए जायँ, तो भी उस चीजको कोई हमारेसे छीन न सके । |